हाल ही में एक नवंबर 2025 को कांठिका मास की अकादमी पर आंध्र प्रदेश के जिला श्रीकाकुलम के कासीबुग्गा स्थित वेंक्टेश्वर मंदिर में मची भगदड़ में नौ लोगों की मौत हो गई तो अनेक घायल हुए। भारत की आध्यात्मिक भूमि पर मंदिर केवल उपासना के स्थल नहीं, बल्कि सामूहिक श्रद्धा और सांस्कृतिक एकता के प्रतीक हैं। यहाँ हर दिन लाखों लोग दर्शन और पूजा के लिए आते हैं। किंतु जब यही आस्था नियंत्रण से बाहर हो जाती है, तो वह विनाश का रूप ले लेती है। देश में समय-समय पर मंदिरों और धार्मिक आयोजनों में हुई भगदड़ की घटनाएँ इस कटु सत्य को सामने रखती हैं कि हमारी भक्ति कितनी असंगठित और प्रशासनिक तैयारी कितनी अपर्याप्त है।
बढ़ते हादसे, घटती संवेदनशीलता-पिछले दो दशकों में भारत ने कई भयावह भगदड़ें देखीं। सरकारी और स्वतंत्र रिपोर्टों के अनुसार, 2001 से 2014 के बीच ही 3,200 से अधिक घटनाओं में लगभग 2,400 लोगों की मौत हुई। 2025 तक यह संख्या 3,000 से ऊपर पहुँच चुकी है।
कुछ प्रमुख उदाहरण
1.मांधारदेवी मंदिर, महाराष्ट्र (2005)ः भीड़ के दबाव में लगभग 350 श्रद्धालुओं की मृत्यु।
2.नैना देवी, हिमाचल प्रदेश (2008)ः अफवाह से मची अफरा-तफरी में 146 लोग मारे गए।
3.चामुंडा देवी, जोधपुर (2008)ः रेलिंग टूटने से 224 लोगों की जान गई।
4.रतनगढ़ माता मंदिर, मध्य प्रदेश (2013)ः पुल पर भगदड़, 115 श्रद्धालु मृत।
5.वैष्णो देवी, जम्मू-कश्मीर (2022)ः नववर्ष की रात 12 श्रद्धालु मारे गए।
6.हाथरस, उत्तर प्रदेश (2024)ः धार्मिक प्रवचन के दौरान भगदड़ में 120 से अधिक मौतें।
7.मानसा देवी, हरिद्वार (2025)ः सावन में भीड़ के दबाव से 6 लोगों की मौत, दर्जनों घायल।
हर घटना के बाद संवेदना तो उमड़ती है, मगर कुछ सप्ताहों में सब भूल जाते हैं। व्यवस्था फिर वैसी ही ढर्रे पर लौट आती है.
मूल कारणः श्रद्धा से अधिक अव्यवस्था
1. भीड़-प्रबंधन की कमी-अधिकांश हादसों में यह पहली और मुख्य वजह होती है। आयोजक एवं प्रशासन अनुमान नहीं लगा पाते कि कितने लोग आएंगे, और सीमित स्थान में अत्यधिक भीड़ घुस जाती है।
2. संकीर्ण मार्ग और ढाँचे की कमजोरी-कई मंदिर पुराने हैं, जिनमें प्रवेश और निकासी के मार्ग संकरे हैं। रेलिंग, सीढ़ियाँ या पुल पुराने और कमजोर हो जाते हैं।
3. अफवाह और घबराहट-“बिजली गिरी”, “भूकंप आया” या “साँप निकला” जैसी अफवाहें भगदड़ का तात्कालिक कारण बनती हैं।
4. प्रशासनिक समन्वय का अभाव-पुलिस, नगर निकाय और मंदिर प्रबंधन में अक्सर पूर्व-योजना की कमी रहती है। आपात स्थिति में कोई तय जिम्मेदारी नहीं होती।
5. श्रद्धालुओं का अनुशासनहीन व्यवहार-जल्दी दर्शन या प्रसाद के लिए लाइन तोड़ना, धक्का देना, ये छोटे कदम बड़े हादसों का रूप ले लेते हैं।
मानवीय और सामाजिक असर-भगदड़ के दृश्य भयावह होते हैं। जमीन पर बिखरे जूते, टूटी चप्पलें, शवों के ढेर और चीखते परिवार। इनमें सबसे ज़्यादा जानें महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों की जाती हैं। इन घटनाओं से न केवल समाज की व्यवस्था पर प्रश्न उठता है, बल्कि धार्मिक पर्यटन की साख को भी धक्का पहुँचता है। मंदिर-प्रबंधन और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
निवारणः आस्था के साथ व्यवस्था
1. भीड़-प्रबंधन योजना-हर बड़े धार्मिक स्थल के लिए नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट की गाइडलाइन के अनुसार विस्तृत योजना बनाई जाए, जिसमें एंट्री, एग्ज़िट, आपात मार्ग और भीड़ की अधिकतम सीमा तय हो।
2. संरचनात्मक सुधार-पुराने पुलों, सीढ़ियों और रेलिंग की नियमित जाँच हो। जरूरत पड़ने पर पुनर्निर्माण किया जाए।
3. डिजिटल निगरानी-सीसीटीवी, ड्रोन और भीड़-गणना तकनीक से वास्तविक समय में निगरानी रखी जाए।
4. ऑनलाइन स्लॉट और ई-टिकट व्यवस्था-जैसे तिरुपति या सबरीमाला में किया गया है, उसी प्रकार बड़े मंदिरों में दर्शन के लिए ऑनलाइन स्लॉट निर्धारित किए जाएँ।
5. आपातकालीन चिकित्सा और प्रशिक्षण-हर मंदिर में मेडिकल टीम, एम्बुलेंस और प्रशिक्षित स्वयंसेवक तैनात हों। त्योहारों से पहले ‘मॉक ड्रिल’ की जाए।
6. जन-जागरूकता अभियान-श्रद्धालुओं को समझाया जाए कि संयम और अनुशासन भी पूजा का हिस्सा हैं। धक्का-मुक्की या लाइन तोड़ना पाप के समान है।
7. अफवाह नियंत्रण और सूचना प्रणाली-मंदिरों में लाउडस्पीकर और स्क्रीन के माध्यम से सही सूचना तत्काल दी जाए ताकि अफवाहें न फैलें।
8. जवाबदेही तय हो-हर हादसे के बाद जांच हो, लेकिन उसके निष्कर्षों को लागू करना सबसे जरूरी है। लापरवाही पर कठोर दंड हो।
भविष्य की दिशा-भारत में धार्मिक पर्यटन निरंतर बढ़ रहा है। 2023 में करीब 65 करोड़ लोग किसी न किसी धार्मिक स्थल पर गए। इतने विशाल प्रवाह को सुरक्षित बनाने के लिए अब राष्ट्रीय धार्मिक सुरक्षा नीति की आवश्यकता है। इसमें मंदिर प्रबंधन को ‘स्मार्ट टेम्पल मिशन’ के तहत तकनीकी रूप से सशक्त बनाया जाए। जहाँ सेंसर, डिजिटल क्यू-प्रणाली और रियल-टाइम मॉनिटरिंग हो।
भगदड़ केवल भीड़ की गलती नहीं, बल्कि व्यवस्था की विफलता है। हर वह मौत, जो मंदिरों की सीढ़ियों पर होती है, हमें यह याद दिलाती है कि श्रद्धा कभी भी विवेक से बड़ी नहीं हो सकती। यदि हम “श्रद्धा में अनुशासन” को अपना लें तो भारत के मंदिर केवल भक्ति के नहीं, सुरक्षा और संगठन के भी प्रतीक बन सकते हैं। समय आ गया है कि हम कहें-“भक्ति वही सच्ची है, जो जीवन बचाए, न कि उसे लील जाए।”
लेखक-
डॉ. चेतन आनंद
(कवि-पत्रकार)
