जलवायु परिवर्तन और वैश्विक ऊष्मीकरण के इस दौर में जब प्राकृतिक वर्षा का संतुलन लगातार बिगड़ता जा रहा है, तब “कृत्रिम वर्षा” यानी क्लाउड सीडिंग तकनीक नई आशा की तरह सामने आई है। यह तकनीक बादलों में रासायनिक पदार्थ (जैसे सिल्वर आयोडाइड, सोडियम क्लोराइड या ड्राई आइस) छिड़ककर वर्षा की संभावना को बढ़ाने का प्रयास करती है। सरल शब्दों में कहें तो यह “आसमान को मनाना” है, ताकि बादल अपने जलकण बरसा दें।
दुनिया में कृत्रिम वर्षा का इतिहास और प्रयोग
कृत्रिम वर्षा का पहला प्रयोग 1940 के दशक में अमेरिका में हुआ, जब वैज्ञानिक विन्सेंट शेफर ने सिल्वर आयोडाइड और ड्राई आइस के प्रयोग से हिमपात करवाने का दावा किया। इसके बाद से लगभग 50 से अधिक देशों ने इस तकनीक को आजमाया है। चीन इस क्षेत्र में सबसे बड़ा खिलाड़ी है। बीजिंग ओलंपिक (2008) के दौरान चीन ने बारिश को नियंत्रित करने के लिए क्लाउड सीडिंग तकनीक का व्यापक उपयोग किया था। अब चीन का लक्ष्य है कि वर्ष 2035 तक अपने देश में वर्षा की मात्रा को 5 से 10 प्रतिशत तक बढ़ाया जाए। संयुक्त अरब अमीरात ने रेगिस्तानी मौसम के कारण वर्षा की कमी को दूर करने हेतु 2010 के दशक में बड़े पैमाने पर ड्रोन-आधारित सीडिंग प्रोग्राम शुरू किया। थाईलैंड में तो इसे “रॉयल रेनमेकिंग प्रोजेक्ट“ कहा गया, जो राजा भूमिबोल अदुल्यादेज के संरक्षण में चला। संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और मेक्सिको जैसे देशों ने भी अपने-अपने क्षेत्रों में इसका उपयोग किया है। इन प्रयासों से यह साबित होता है कि कृत्रिम वर्षा सिर्फ प्रयोगशाला तक सीमित नहीं रही, यह अब जल-संकटग्रस्त देशों की जलनीति का हिस्सा बन चुकी है।
भारत में कृत्रिम वर्षा, प्रयोग और अनुभव
भारत में भी इस दिशा में कई प्रयोग हुए हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में मौसम की अनिश्चितता, सूखे और जल संकट को देखते हुए राज्य सरकारों ने समय-समय पर क्लाउड सीडिंग कार्यक्रम चलाए। तमिलनाडु ने सबसे पहले 1983-84 में कृत्रिम वर्षा का प्रयोग किया। बाद में 1993-94 में फिर से प्रयास किया गया। कर्नाटक ने 2003 में बड़े पैमाने पर यह कार्यक्रम चलाया, जिसे “वर्षा योजना” कहा गया। इसका उद्देश्य कृषि क्षेत्र को राहत देना था। महाराष्ट्र में 2015 के आसपास “वार्म क्लाउड मॉडिफिकेशन एक्सपेरिमेंट” किया गया, जो 11 वर्षों तक चला। वैज्ञानिकों ने पाया कि वर्षा की मात्रा में लगभग 18 प्रतिशत तक वृद्धि देखी गई। दिल्ली में हाल ही में (2025) क्लाउड सीडिंग की तैयारी की जा रही है, ताकि वायु प्रदूषण कम किया जा सके और वायुमंडल की नमी बढ़े। हालाँकि, भारत में इस तकनीक का कोई स्थायी या केंद्रीकृत कार्यक्रम नहीं है। विभिन्न राज्यों ने इसे अस्थायी उपाय के रूप में अपनाया है, लेकिन इसका राष्ट्रीय स्तर पर मूल्यांकन अभी नहीं हुआ।
यह तकनीक कैसे काम करती है-क्लाउड सीडिंग के लिए विशेष विमान या रॉकेट का उपयोग किया जाता है। इनसे रासायनिक पदार्थ बादलों में छोड़े जाते हैं, जिससे जलकण संघनित होकर बारिश की बूंदों में बदलते हैं।
इस प्रक्रिया के तीन प्रमुख तरीके हैं-
1.स्टैटिक सीडिंग-बादलों में सिल्वर आयोडाइड डालकर संघनन प्रक्रिया तेज करना।
2.डायनामिक सीडिंग-वायु धाराओं की गति को प्रभावित कर बारिश को बढ़ाना।
3.हाइड्रोस्कोपिक सीडिंग-सोडियम क्लोराइड (नमक) से बादलों के जलकणों को बड़ा करना।
संभावित फायदे
क्लाउड सीडिंग के कई वैज्ञानिक और सामाजिक लाभ हो सकते हैं-
1.वर्षा बढ़ाना, सूखे या शुष्क क्षेत्रों में जलस्रोतों को पुनः भरने में मदद।
2.कृषि लाभ, बारिश पर निर्भर फसलों को आवश्यक पानी उपलब्ध हो सकता है।
3.भूजल स्तर में सुधार, कृत्रिम वर्षा से तालाब, झीलें और बांध पुनः भर सकते हैं।
4.धूल और प्रदूषण नियंत्रण, बारिश से हवा में मौजूद प्रदूषक तत्व धुल सकते हैं (जैसे दिल्ली में योजना)।
5.बिजली उत्पादन, जलाशयों में पानी बढ़ने से हाइड्रो पावर प्लांट की कार्यक्षमता बढ़ सकती है।
नुकसान और सीमाएँ
हालाँकि इसके लाभ अनेक हैं, पर इसके जोखिम और सीमाएँ भी कम नहीं-
1.वैज्ञानिक अनिश्चितता, विशेषज्ञ मानते हैं कि कृत्रिम वर्षा की सफलता दर लगभग 60-70 प्रतिशत है, और कई बार यह काम नहीं करती क्योंकि उपयुक्त बादल न हों तो रासायनिक छिड़काव बेअसर रहता है।
2.उच्च लागत, एक-एक अभियान में करोड़ों रुपये खर्च होते हैं।
3.पर्यावरणीय खतरे, सिल्वर आयोडाइड जैसे रसायनों का दीर्घकालिक प्रभाव मिट्टी और जल पर अभी स्पष्ट नहीं है।
4.न्यायसंगतता का प्रश्न, अगर एक क्षेत्र में वर्षा बढ़ाई जाती है, तो दूसरे क्षेत्र के बादल “चुराए” जा सकते हैं, जिससे असंतुलन पैदा होता है।
5.सीमित प्रभाव क्षेत्र, यह तकनीक केवल मौजूदा बादलों पर ही काम करती है; नए बादल नहीं बना सकती।
भारत में सफलता बनाम असफलता-अब तक भारत में हुई सभी क्लाउड सीडिंग परियोजनाओं के बारे में कोई केन्द्रीय डेटाबेस उपलब्ध नहीं है। हालाँकि विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार, कुछ प्रयोग आंशिक रूप से सफल रहे हैं, जबकि कुछ में वर्षा अपेक्षा से बहुत कम हुई। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र के प्रयोग में वर्षा में औसतन 15-18 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गई। लेकिन कर्नाटक के कुछ अभियानों में अपेक्षित बारिश नहीं हुई और वैज्ञानिकों ने इसे “मौसमी परिस्थितियों पर निर्भर” बताया। कुल मिलाकर, भारत में अब तक दर्जनों प्रयोग किए जा चुके हैं, लेकिन “असफलता की सटीक संख्या” सार्वजनिक रूप से दर्ज नहीं है।
भविष्य की दिशा-भारत में बढ़ते जल संकट और अनिश्चित मानसून को देखते हुए, कृत्रिम वर्षा भविष्य में एक सहायक तकनीक साबित हो सकती है। हालाँकि, इसके लिए सरकार को चाहिए कि इस पर राष्ट्रीय नीति तैयार करे, वैज्ञानिक संस्थानों को संयुक्त रूप से अनुसंधान करने दे, पर्यावरणीय सुरक्षा के मानक तय करे और इसके सामाजिक-आर्थिक लाभ-हानि का पारदर्शी मूल्यांकन करे। कृत्रिम वर्षा एक ऐसी तकनीक है जिसमें विज्ञान, पर्यावरण और उम्मीद तीनों का संगम है। यह कोई चमत्कार नहीं, बल्कि संभावनाओं की प्रयोगशाला है। अगर इसका सही, पारदर्शी और पर्यावरण-सुरक्षित उपयोग किया जाए, तो यह सूखे, जल-संकट और प्रदूषण जैसी आधुनिक समस्याओं का एक महत्वपूर्ण समाधान बन सकती है। परंतु इसे अपनाने से पहले हमें यह समझना होगा कि आसमान को मनाने से पहले, धरती को समझना भी उतना ही ज़रूरी है। भारत में कृत्रिम वर्षा के प्रयोग अभी शुरुआती दौर में हैं। इसके लिए दीर्घकालिक योजना, वैज्ञानिक निवेश और पर्यावरणीय दृष्टि से सावधानी आवश्यक है। तभी यह तकनीक हमारे सूखते जल-संसाधनों को फिर से जीवन दे सकेगी।
लेखक
डॉ. चेतन आनंद
(कवि-पत्रकार)
