(राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की जयंती (23 सितंबर ) पर विशेष)
मोहन मंगलम
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने सामाजिक-आर्थिक असमानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की। ‘दिनकर’ अपनी डायरी में लिखते हैं, “कविता में कवि कहां छिपा है, इसका सुराग नहीं मिले, यह कलाकार की सच्ची स्थिति है और इसे मैंने आज तक निभाया था। लोग समझते रहे कि मैं देश का दर्द गाता हूं, मगर दर्द मैंने अपना ही गाया था।”
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया ग्राम में किसान परिवार में हुआ था। इनके पिता रवि सिंह साधारण किसान थे। ‘दिनकर’ जब महज दो वर्ष के थे, उनके पिता का देहावसान हो गया। ऐसे में बच्चों के पालन-पोषण के लिए उनकी मां मनरूप देवी भी खेतीबाड़ी का काम संभालने लगीं। ‘दिनकर’ का बचपन और कैशोर्य देहात में बीता, जहां दूर तक फैले खेतों की हरियाली, बांसों के झुरमुट और आमों के बगीचे थे। प्रकृति की इस सुषमा का प्रभाव दिनकर के मन में बस गया। इसके साथ ही उन पर वास्तविक जीवन की कठोरताओं का भी अत्यधिक गहरा प्रभाव पड़ा।
‘दिनकर’ ने गाँव के ही प्राथमिक विद्यालय से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की एवं निकटवर्ती बोरो ग्राम के ’’राष्ट्रीय मिडिल स्कूल’’ जो सरकारी शिक्षा व्यवस्था के विरोध में खोला गया था, में दाखिला लिया। यहीं से इनके मनो-मस्तिष्क में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा। ओज, विद्रोह, आक्रोश के साथ ही कोमल शृंगारिक भावनाओं के कवि ‘दिनकर’ की काव्य-यात्रा की शुरुआत हाई स्कूल के दिनों में हुई जब उन्होंने रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा प्रकाशित पत्र ‘युवक’ में ‘अमिताभ’ नाम से अपनी रचनाएँ भेजनी शुरू कीं। गुजरात में बारदोली आंदोलन की सफलता के बाद 1928 में प्रकाशित ‘विजय संदेश’ उनका पहला काव्य संग्रह था।
‘दिनकर’ ने 1928 में ’’मोकामाघाट हाई स्कूल’’ से मैट्रिक की परीक्षा पास की तथा पटना विश्वविद्यालय से 1932 में इतिहास में बी. ए. ऑनर्स करने के अगले ही वर्ष वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये। इसके बाद उन्होंने 1934 से 1947 तक बिहार सरकार में सब-रजिस्ट्रार की नौकरी की। इस दौरान उनका कार्यकाल देहातों में बीता तथा जीवन का जो पीड़ित रूप उन्होंने बचपन से देखा था, उनके मन को मथ गया। फिर जो ज्वार उमरा, उससे अनेक गीत रचे गए। ‘रेणुका’ और ‘हुंकार’ की कुछ कविताएं यहां-वहां प्रकाश में आईं। अंग्रेज प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक गलत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और ‘दिनकर’ की फाइल तैयार होने लगी। बात-बात पर कैफियत तलब होती और चेतावनी मिला करती थी। 4 वर्ष में 22 बार उनका तबादला किया गया।
1947 में देश स्वाधीन हुआ और रामधारी सिंह ‘दिनकर’ बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त होकर मुजफ्फरपुर पहुँचे। 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का गठन हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वे दिल्ली आ गए। वे दो कार्यकाल यानी 12 वर्ष तक राज्यसभा के सदस्य रहे। उन्हें सन् 1964 में भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया, लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने ‘दिनकर’ को अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वे फिर दिल्ली लौट आए तथा 1971 तक यह पद संभाला।
‘दिनकर’ के प्रथम तीन प्रमुख काव्य-संग्रह हैं ‘रेणुका’, ‘हुंकार’ और ‘रसवन्ती’। ये उनके आरम्भिक आत्म मंथन के युग की रचनाएं हैं। इनमें ‘दिनकर’ का कवि अपने व्यक्तिपरक, सौन्दर्यान्वेषी मन और सामाजिक चेतना से उत्तम बुद्धि के परस्पर संघर्ष का तटस्थ द्रष्टा नहीं, दोनों के बीच से कोई राह निकालने की चेष्टा में संलग्न साधक के रूप में मिलता है।
राष्ट्रवाद ‘दिनकर’ के काव्य की मूल भूमि है। वे आजादी के समय के सर्वश्रेष्ठ कवियों में गिने जाते हैं। उनकी कविताएं आजादी पाने के जोश को दर्शाती थीं। वे स्वतन्त्रता से पहले विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद ’’राष्ट्रकवि’’ के नाम से जाने गये। चीन के हमले के समय ‘दिनकर’ ने अपनी कविताओं के माध्यम से देशवासियों के बीच राष्ट्रीय चेतना का संचार किया।
‘दिनकर’ ने अनेक प्रबन्ध काव्यों की रचना भी की है, जिनमें ‘कुरुक्षेत्र’, ‘रश्मिरथी’ तथा ‘उर्वशी’ प्रमुख हैं। ‘उर्वशी’ को छोड़कर ‘दिनकर’ की अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत हैं। ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी कृति ‘उर्वशी’ की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती है। वहीं, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद रचित ‘कुरुक्षेत्र’ महाभारत के शान्ति पर्व का कविता-रूप है। इसमें महाभारत के शान्ति पर्व के मूल कथानक का ढाँचा लेकर दिनकर ने युद्ध और शान्ति के विशद, गम्भीर और महत्वपूर्ण विषय पर अपने विचार भीष्म और युधिष्ठिर के संलाप के रूप में प्रस्तुत किये हैं। दिनकर के काव्य में विचार तत्त्व इस तरह उभरकर सामने पहले कभी नहीं आया था। ‘दिनकर’ ने एक प्रगतिवादी और मानवतावादी कवि के रूप में ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का ताना-बाना दिया। प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया।
‘दिनकर’ की प्रसिद्धि का मुख्य आधार कविता है, लेकिन गद्य लेखन में भी वे आगे रहे। इसका ज्वलंत उदाहरण है ’’संस्कृति के चार अध्याय’’ जो साहित्य अकादमी से पुरस्कृत है। इस वैचारिक कृति में ‘दिनकर’ ने कहा कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी हमारी सोच एक जैसी है। इसके अतिरिक्त ’’दिनकर’’ के स्फुट, समीक्षात्मक तथा विविध निबंधों के संग्रह हैं। इन्होंने काव्य, संस्कृति, समाज, जीवन आदि विषयों पर बहुत ही उत्कृष्ट लेख लिखे हैं। ‘दिनकर’ का गद्य-साहित्य भी काव्य की भांति ही अत्यंत सजीव तथा ओज से ओत-प्रोत है। इनके गद्य में विषयों की विविधता और शैली की प्रांजलता के सर्वत्र दर्शन होते हैं।
हिन्दी की अनवरत सेवा करते हुए 24 अप्रैल 1974 को हिन्दी साहित्याकाश का यह श्दिनकरश् सदा-सदा के लिए अस्त हो गया, लेकिन अपनी लेखनी के माध्यम से वे सदा अमर रहेंगे। प्रस्तुत हैं उनकी प्रतिनिधि काव्य कृतियों से कुछ कालजयी पंक्तियां -
“श्वानों को मिलता दूध-भात बच्चे भूखे अकुलाते हैं।
माँ की हड्डी से ठिठुर चिपक जाड़े की रात बिताते हैं।।”
“सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है,।
सूरमा नहीं विचलित होते,क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं।”
“मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।”
“पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही सौ लपट दिशाएं
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम आज उनकी जय बोल।”