दिल्ली-एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) देश के सबसे बड़े आवासीय बाजारों में से एक है। गुरुग्राम, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, फरीदाबाद और गाजियाबाद जैसे शहर पिछले दो दशकों में गगनचुंबी इमारतों से भर गए हैं। हर साल लाखों लोग यहाँ अपने “सपनों का घर” खरीदने की कोशिश करते हैं। पर इन ऊँची इमारतों की चमक के पीछे एक बड़ा आर्थिक और सामाजिक सवाल छिपा है, कितने फ्लैटों पर बैंक लोन चल रहा है, कितने लोग किस्तें चुका रहे हैं और कितनों की किस्तें डूब चुकी हैं?
बैंक लोन का बढ़ता ग्राफ
राष्ट्रीय आवास बैंक (एनएचबी) के अनुसार, वर्ष 2024 के अंत तक भारत में कुल 33.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक का आवासीय ऋण बकाया था। इसमें दिल्ली-एनसीआर की हिस्सेदारी लगभग 22-25 प्रतिशत के बीच मानी जाती है, क्योंकि यहाँ सबसे अधिक शहरीकरण और मध्यमवर्गीय आवासीय निवेश हुआ है। सिर्फ नोएडा, ग्रेटर नोएडा और गुरुग्राम मिलाकर लगभग 10 लाख से अधिक सक्रिय फ्लैट लोन खाते चल रहे हैं। इनमें से बड़ी संख्या 40 लाख से 1 करोड़ रुपये तक के कर्ज़ की है। इन फ्लैटों में से लगभग 65-70 प्रतिशत खरीदारों ने बैंक या हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों से ऋण लिया है। बैंकों के लिए यह सेक्टर बेहद आकर्षक रहा, क्योंकि नियमित ईएमआई भुगतान से उन्हें स्थिर ब्याज आय मिलती है। परंतु इस सुनहरी तस्वीर में एक छिपी दरार भी है।
डूबते सपनों की हकीकत
आरबीआई की रिपोर्टों और उद्योग सर्वेक्षणों के अनुसार, दिल्ली-एनसीआर में आवासीय ऋणों का औसत एनपीए अनुपात लगभग 2-3 प्रतिशत तक पहुँच चुका है। हालांकि यह प्रतिशत कम दिखता है, पर क्षेत्र की विशालता को देखते हुए इसका अर्थ है कि लगभग 15,000- 20,000 करोड़ रुपये तक के ऋण जोखिम में हैं। सबसे बड़ी दिक्कत “अफोर्डेबल हाउसिंग” यानी किफ़ायती आवास क्षेत्र में है। यहाँ नौकरी की अस्थिरता और आय की अनिश्चितता के कारण ईएमआई भुगतान में रुकावटें आई हैं। गुरुग्राम और नोएडा के कई प्रोजेक्टों में अधूरे निर्माण, कानूनी विवाद और बिल्डर की दिवालियापन प्रक्रिया ने भी हजारों खरीदारों को लोन भुगतान में फँसा दिया। नोएडा एक्सटेंशन, बिसरख और सेक्टर-150 जैसे इलाकों में कई परियोजनाएँ वर्षों से रुकी हुई हैं। खरीदार ईएमआई तो दे रहे हैं, पर कब्जा नहीं मिला। परिणामस्वरूप कई लोगों ने भुगतान रोक दिया, जिससे ये लोन एनपीए श्रेणी में आने लगे।
लोन डूबने के मुख्य कारण
दिल्ली-एनसीआर के फ्लैट लोन संकट को समझने के लिए इसके सामाजिक और आर्थिक कारणों को देखना आवश्यक है-
निर्माण में विलंब और बिल्डर की दिवालियापन स्थिति-2010 के बाद से कई बड़े बिल्डर,जैसे आम्रपाली, यूनिटेक, सुपरटेक आदि पर कानूनी कार्यवाही हुई। फ्लैट खरीदारों ने लोन लिया, ईएमआई दी, पर मकान अधूरा रह गया।
ब्याज दरों में बढ़ोतरी-2022-24 के बीच रेपो रेट में 2.5 प्रतिशत तक वृद्धि हुई, जिससे ईएमआई औसतन 4,000 से 6,000 रुपये बढ़ गई। इससे मध्यमवर्गीय आय पर सीधा असर पड़ा।
रोजगार अस्थिरता-कोविड के बाद आईटी, रिटेल और रियल एस्टेट क्षेत्रों में छँटनी हुई, जिससे ईएमआई भुगतान रुक गए।
कानूनी और स्वामित्व विवाद-जमीन के स्वामित्व, रेरा पंजीकरण और अधिग्रहण में खामियों ने कई प्रोजेक्टों को रोक दिया।
अतिरिक्त लोन बोझ-कई परिवारों ने एक से अधिक फ्लैट खरीद लिए, निवेश की नीयत से। बाजार मंदा पड़ा तो उन्हें नुकसान हुआ और भुगतान असंभव हो गया।
सरकार और न्यायालय की भूमिका
इन संकटों के बीच सरकार और न्यायालय ने खरीदारों के हित में कई कदम उठाए-
रेरा (रियल एस्टेट रेगुलेशन एक्ट, 2016)-अब हर प्रोजेक्ट को रजिस्ट्रेशन आवश्यक है। बिल्डर को खरीदार के पैसे का 70 प्रतिशत निर्माण पर ही खर्च करना होगा। देरी होने पर बिल्डर को ब्याज देना पड़ता है।
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप (आम्रपाली केस)-कोर्ट ने एनबीसीसी को अधूरे प्रोजेक्ट पूरे करने का आदेश दिया। इस कदम से लगभग 40,000 खरीदारों को राहत मिली।
प्रधानमंत्री आवास योजना-निम्न और मध्यम आय वर्ग को 6.5 प्रतिशत तक ब्याज सब्सिडी दी जा रही है।
नोएडा और ग्रेटर नोएडा प्राधिकरणों द्वारा नई नीतियाँ-बिल्डरों के डिफॉल्ट प्रोजेक्टों को नए निवेशकों को सौंपकर पूरा करने की दिशा में प्रयास।
बैंकिंग सेक्टर की स्थिति
सार्वजनिक और निजी बैंकों ने भी अपने जोखिम को सीमित करने के लिए कई कदम उठाए हैं, जैसे आरबीआई और एनएचबी के दिशा-निर्देशों के तहत बैंक अब लोन टू वैल्यू रेशियो को 80 प्रतिशत तक सीमित रखते हैं। क्रेडिट स्कोर आधारित स्क्रीनिंग कड़ी कर दी गई है। हाउसिंग फाइनेंस कंपनीज को अब छोटे लोन पर ब्याज दरें बढ़ानी पड़ी हैं ताकि संभावित नुकसान की भरपाई हो सके। बड़े प्रोजेक्टों में बैंकों ने “सिंडिकेटेड लोन” मॉडल अपनाया है ताकि जोखिम साझा किया जा सके।
संभावनाएँ और सुधार की दिशा
दिल्ली-एनसीआर का रियल एस्टेट बाजार 2025-26 में फिर से तेज़ी दिखा रहा है। नाइट फें्रक और एनारॉक की रिपोर्ट के अनुसार, 2025-26 में इस क्षेत्र में लगभग 60,000 नए फ्लैटों की बुकिंग की उम्मीद है। आय में वृद्धि, बुनियादी ढाँचे (जैसे मेट्रो विस्तार, यमुना एक्सप्रेसवे, दिल्ली-मुंबई कॉरिडोर) और रोजगार के अवसरों के कारण यह क्षेत्र निवेशकों के लिए अब भी आकर्षक है। सरकार के अनुसार, रेरा और डिजिटल रजिस्ट्री के बाद खरीदारों का भरोसा लौटा है। बैंकों ने भी अब सुरक्षित ऋण नीति अपनाई है, अर्थात् पहले से अधिक सटीक मूल्यांकन और भुगतान ट्रैकिंग।
समाधानः खरीदार, बैंक और नीति-निर्माताओं की साझा जिम्मेदारी
खरीदारों को सावधानी बरतनी होगी केवल रेरा मान्य प्रोजेक्ट में निवेश करें। ईएमआई क्षमता का आकलन वास्तविक आय के अनुरूप करें। “इन्वेस्टमेंट फ्लैट” की बजाय “रहने योग्य फ्लैट” प्राथमिकता बनाएं।
बैंकों को पारदर्शिता बढ़ानी होगी
ग्राहक को ब्याज दर, फ्लोटिंग रेट बदलाव और छिपे शुल्क स्पष्ट बताएं। डिजिटल ट्रैकिंग और चेतावनी प्रणाली मजबूत करें। सरकार को नियमन सख्त और सरल दोनों बनाना होगा। रेरा में अपील प्रक्रियाएँ तेज़ हों। अधूरे प्रोजेक्टों की रीयल-टाइम मॉनिटरिंग हो। बिल्डरों की वित्तीय गारंटी प्रणाली लागू की जाए।
दिल्ली-एनसीआर का रियल एस्टेट देश की आर्थिक नब्ज़ है। यहाँ के फ्लैट केवल ईंट-पत्थर नहीं, बल्कि करोड़ों परिवारों के जीवन सपनों का प्रतीक हैं। बैंकों के लिए यह लाभकारी क्षेत्र है, लेकिन लापरवाही, कानूनी गड़बड़ियाँ और आर्थिक अस्थिरता इसे बार-बार संकट में डाल देती हैं। यदि नीति-निर्माता, बैंक और खरीदार, तीनों ही मिलकर पारदर्शिता, जिम्मेदारी और नियमन के साथ आगे बढ़ें, तो दिल्ली-एनसीआर एक बार फिर भारत के “सपनों के घर” का सच्चा केंद्र बन सकता है।
लेखक
डॉ. चेतन आनंद
(कवि-पत्रकार)
