बात उस समय की है जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था। तब कविता लिखने का जुनून हुआ करता था। मेरा परिचय तब किसी के मार्फत मुरादनगर के हिसाली गाँव निवासी सुकवि श्री दयाशंकर अश्क से हुआ था। बातों-बातों में उन्होंने मुझे बताया कि ग़़ाज़ियाबाद में तो सुप्रसिद्ध कवि डॉ. कुँअर बेचैन रहते हैं। पता पूछकर मैं बेचैन जी के घर नेहरू नगर पहुँचा। वह घर पर ही मिले। उनसे मुलाकात हुई। उनसे मिलकर महसूस ही नहीं हुआ कि उनसे मेरी पहली मुलाकात है। मुझमें कविता लिखने के साथ उसे सुनाने का भी शौक था। मेरे निवेदन पर बेचैन जी ने मेरी कविता सुनी। कविता में तो कोई बात कविता जैसी नहीं थी लेकिन उन्होंने मेरा हौसला बहुत बढ़ाया। उन्होंने मेरी कविता की बहुत तारीफ की। उन्होंने मुझे पहली बात जो बताई वह यह थी कि प्रकृति में, या घर में, बाहर-अंदर जो भी वस्तुएं हैं उनको ज़िन्दगी से जोड़ो। फिर कविता में उसे ढालो। मैं उनकी बात से इतना प्रभावित हुआ कि उनसे मिलने गाहे-बगाहे उनके घर जाने लगा। इस बीच मैं लाल क्वार्टर मोहल्ले में रहता था। वहां मैंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर स्वर स्वामिनी तरुण समिति बना डाली। सभी ने तय किया कि लाल क्वार्टर मोहल्ले में एक कवि सम्मेलन करवाएंगे। इस सिलसिले में अश्क जी से बात हुई। उनके मार्फत ओज के सुप्रसिद्ध कवि स्व. श्री वेद प्रकाश सुमन जी से मिलना हुआ। कवि सम्मेलन की बात बनी। तय हुआ कि बेचैन जी का इस कवि सम्मेलन में अभिनंदन करेंगे। मेरा बचपन का दोस्त और सहपाठी कवि चरण शंकर प्रसून और मैं बेचैन जी के घर पहुंचे। उनसे आग्रह किया। वह मान गये। मोहल्ले में घर-घर जाकर हमने चंदा एकत्र किया और कवि सम्मेलन करवा डाला। बेचैन जी का अभिनंदन किया। जैसा भी किया अपनी सामर्थ्य अनुसार किया। सुमन जी ने संचालन कर कवि सम्मेलन में चार चांद लगाये। दो दिन बाद मैं फिर बेचैन जी से मिला। बात-बात में मैंने कहा कि समिति की ओर से एक स्मारिका निकालनी है। अपनी कोई कविता दे दो, इसे हम कवर पेज पर प्रकाशित करेंगे। बेचैन जी ने हमें जो कविता दी वह मां शारदे पर लिखा छंद था। जो इस प्रकार था- ‘नित ज्ञान गुमान के आंगन में कुछ भोर रहे, कुछ सांझ रहे। मुस्कान की गोद भरी ही रहे पर पीर भी मेरी न बांझ रहे। मन में कुछ और रहे न रहे, मन मानव का मन मांझ रहे। वरदान दे मां मन मंदिर में बजती नवगीत की झांझ रहे।’ मेरे मुंह से निकल गया कि हम इसे तीन महीने में प्रकाशित कर देंगे। उस समय पद्मभूषण गीत ऋषि नीरज जी, राजेन्द्र राजन जी, उर्मिलेश जी ने डाक से अपनी रचनाएं हमें भेजीं। हमने भी साहस करके पैसे जुटाये और एक स्मारिका प्रकाशित कर ही दी। तीन महीने बाद मैं बेचैन जी के पास स्मारिका लेकर गया। उनके घर के गेट पर बाहर ही खड़ा था। बाहर बेचैन जी आए। दरवाज़ा खोला। मैंने स्मारिका उनके हाथ पर रख दी। यह देखकर वह इतना खुश हुए कि मेरा हाथ पकड़कर घर के अंदर ले गये। अपनी पत्नी यानी हमारी मम्मी जी, उन्हें मैं मम्मी जी बुलाता हूं, के पास ले जाकर मेरी ओर इशारा करते हुए बोले- यह होता है लागू। जो कहा, वह किया। उन्हांंने मुझे खूब-खूब आशीर्वाद दिये। इसके बाद तो उनसे मिलने का सिलसिला ही चल निकला। बेचैन जी अब मेरे काव्य गुरु ही नहीं मेरे मार्गदर्शक-पिता भी बन चुके थे। मैं उन्हें गुरुजी कहकर बुलाने लगा। जो भी कविता मैं उनके पास लिखकर ले जाता, वह उसमें थोड़ा-बहुत संशोधन कर दिया करते। मेरे जैसे दो-तीन और कविता लिखने वाले उनके पास आते थे। जैसे अनिल असीम, नित्यानंद तुषार, गोविन्द गुलशन, पवन खत्री, अमिताभ मासूम आदि। गुरुजी ने हम सबको कहा कि तुम सब अलग-अलग दिनों में आते हो। मेरे भी कवि सम्मेलन होते हैं। मैं बाहर भी रहता हूं। इसलिए एक दिन कोई ऐसा हो जिसमें सब अपनी-अपनी कविताएं लेकर आएं। तय हुआ कि गुरुवार की शाम सब आया करेंगे। बस फिर क्या था, गुरुजी के ड्राइंग रूम में हम गुरुवार को तय समय पर पहुंचने लगे। शर्त थी कि सब अपनी नई कविताएं लेकर आएंगे। उसी पर चर्चा हुआ करेगी। पहले गुरुवार आने वाले कवियों की संख्या तीन-चार ही थी। लेकिन धीरे-धीरे संख्या चार से छह, छह से दस, दस से बीस, बीस से तीस और फिर 35-36 तक पहुंच गई। वह दौर हमारा गोल्डन पीरियड था। उस दौरान हमने कविता की बहुत सारी बारीकियां सीखीं। किसी के द्वारा कविता में कमी बता देने का हम लोग बुरा भी नहीं माना करते थे। बड़ी स्वस्थ आलोचना हुआ करती थी। क्या गीत, क्या ग़ज़ल, क्या मुक्तक, क्या छंद, सभी विधाओं की व्याकरणिक जानकारियां हमें होने लगीं थीं। एक रोज़ गुरुजी को तेज़ बुखार आ गया। ड्राइंग रूम में वह पलंग पर लेटे थे। मैं और पवन खत्री, जो अब हमारे बीच नहीं है, को गुरुजी ने कहा कि मुझे अपनी ‘ग़ज़ल का व्याकरण’ नामक किताब प्रकाशक को देनी है, दो दिनों में ही। लेकिन बुखार की वजह से मैं रफ पांडुलिपि को फेयर नहीं कर पा रहा हूं। गुरुजी के आदेश पर मैं और पवन वहीं उनके घर पर ग़ज़ल के व्याकरण पर लिखी गुरुजी की किताब की पांडुलिपि फेयर करने लगे। हम दोनों देर रात तक उनकी पांडुलिपि को हाथ से लिखने लगे। इसका लाभ यह हुआ कि जो भी ग़ज़ल का व्याकरण था वह आसानी से हमें याद हो गया। इससे हमारी ग़ज़ल कहने की रुचि में बहुत इज़ाफा हुआ। उस दौरान हमने बहुत ग़ज़लें कहीं। यहां तक कि ग़ज़ल के व्याकरण पर पवन और मेरी बड़े-बड़े शायरों से ठन भी जाती थी।
आईने तो ग़ायब हैं, चेहरे अकेले हैं
इन रगों में बसते हैं गीत, नज़्म, कविताएँ
क्या सिखाओगे हमको, हम कुँअर के चेले हैं।
-डॉ. चेतन आनंद