समीक्षक - डॉ रेखा गुप्ता
हॉलैंड से प्रकाशित विश्व साहित्य की समावेशी पत्रिका ’’विश्वरंग’’ के प्रधान संपादक एवं वरिष्ठ लेखक श्री रामा तक्षक को उनके उपन्यास ‘’हीर हम्यो’’ के लिए राज.साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा पुरस्कृत किये जाने पर बधाई एवं शुभकामनाएँ। यह उपन्यास आइसेक्ट पब्लिकेशन से प्रकाशित 258 पृष्ठ और 12 खंडों में विभक्त है तथा इसका मूल्य 450 रूपए है।
इस उपन्यास ‘हीर हम्मो’ को लेखक ने दुनियाभर में घरेलू हिंसा, आततायियों के संत्रास, बलात्कार और पीड़ित महिलाओं को समर्पित करते हुए बताया है कि इस उपन्यास के पात्र नितांत अनुभव के चेहरे हैं, काल्पनिक पात्र नहीं। आतंक और युद्ध के दंश की पीड़ा संवेदनशील लेखक को कहीं गहरे तक टीसती है। हीर हम्मो के लेखक रामा तक्षक हों या ’’अधायुग’’ के लेखक धर्मवीर भारती,युद्ध की विभीषिका दोनों को ही समान रूप से इतना उद्वेलित कर देती है कि वे कलम उठाकर अपने स्तर पर उसका निदान खोजने लगते हैं। धर्मवीर भारती लिखते हैं- युद्धोपरांत /यह अंधायुग अवतरित हुआ/ जिसमें स्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं। फिर भी वे गीतिनाट्य के अंत में कहते हैं- यह कथा ज्योति की है, अंधों के माध्यम से। ठीक इसी प्रकार रामा तक्षक जी भी लिखते हैं कि आइसिस के उदय के साथ-साथ मन को झकझोर देने वाली घटनाओं का ताँता लग गया था। हर रोज एक-दो नहीं बहुत सारी घटनाएँ सुनने को मिलतीं और उन हिला देने वाली, दिल दहला देने वाली घटनाओं का ताना-बाना बुनते हुए वे अंत में लिखते हैं-
प्रीति की आँखों से देखो, वहां अँधियारा नहीं है,
मन की आंखों से देखो, उजियारा हर कहीं है।
युद्ध, आतंक और अमानुषिक परिवेश के मध्य स्त्री जीवन की त्रासदी और पुरुष प्रधान समाज की घृणित मानसिकता की पराकाष्ठा को दर्शाते हुए,प्रेम एवं करुणा जैसे शाश्वत भावों के माध्यम से मानवीय मूल्यों की स्थापना का प्रयास है यह उपन्यास।
वर्तमान में देखें तो यूक्रेन रूस का युद्ध तो चल ही रहा था कि हमास- इजरायल का युद्ध और प्रारंभ हो गया। इतने दिनों से चल रहे युद्ध में विश्व की महाशक्तियां दो गुटों में बंटती जा रही हैं और यह आशंका भी बढ़ती जा रही है कि कहीं हम तृतीय विश्व की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं।
इस स्थिति में इस पुस्तक पर चर्चा और भी महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हो जाती है। इसमें युद्ध के परिप्रेक्ष्य से अनेक प्रश्न उठाए गए हैं जो बार-बार सावचेत करते हैं कि युद्ध कहीं भी हो, किसी भी काल में हो, किसी भी देश या व्यक्ति के मध्य हो, उसके परिणाम सदैव घातक, विध्वंसकारी और पीड़ाकारक होते हैं। ’’हीर हम्मो’’ युद्ध के साथ-साथ स्त्री जीवन की विसंगतियों की मार्मिक एवं मनोविश्लेषणात्मक अभिव्यक्ति है। जहाँ एक ओर युद्ध में अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए विध्वंसक रूप से आक्रमण कर एक-दूसरे पर आधिपत्य जमाया जाता है,वहीं दूसरी ओर स्त्रियों, अबोध बालकों के साथ बलात्कार, अपहरण,उनके क्रय- विक्रय एवं शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न जैसे अमानवीय कृत्य भी किए जाते हैं।
इस उपन्यास में इस्लामिक स्टेट के उत्थान पर सीरिया और ईराक में, खासकर सिंजार प्रांत में यजीदी समूह के लोगों का भारी मात्रा में नरसंहार और इसी दौरान यजीदी महिलाओं के अपहरण और उनके साथ की गई क्रूरता का वीभत्स वर्णन है। बारह खण्डों में विभक्त यह कथा प्रायः पूर्व दीप्ति, वार्तालाप, रेडियो- टी वी. पर वार्ता, साक्षात्कार, स्मृति आदि के आधार पर आगे बढ़ती है और एक महीन सूत्र ही कथा को बाँधे रखता है। उपन्यास की परंपरागत कसौटी पर कसकर इसे नहीं परखा जा सकता क्योंकि इसके कथानक में एक बँधाव नहीं है। प्रत्येक खण्ड की कथा अनेक दृश्यों में बंटी हुई, अलग-अलग संदर्भों के साथ आगे बढ़ती है, किन्तु दृश्यों का वर्णन इतना सजीव है कि पढ़ने वाले को लगता है मानो हमारे सामने कोई फिल्म चल रही हो।
उपन्यास के प्रथम दो खंड बहुत छोटे हैं जिसमें सलमा और पद्मा दो सहेलियाँ अपने घर में बैठी बतिया रही हैं, जिसमें वह बताती है कि सलमा शाम को थिएटर देखने जाएगी और पद्मा अपनी गोद ली गई बेटी मरिया को अज़मे रालदे की निगरानी में सौंप कर ऑफिस की पार्टी में जाएगी।उसे जब यह पता चलता है कि अज़मे रालदे एक स्त्री न होकर पुरुष है तो उसे अपनी छोटी बच्ची को एक कंपनी के मुस्लिम पुरुष के हाथों सौंपने में तनिक चिंता होती है किंतु बाद में वह अपने मन पर विजय प्राप्त कर लेती है और रालदे को नमाज पढ़ने के लिए आसन और बच्ची का सारा सामान बता कर निश्चिंत होकर चली जाती है। पद्मा के मन में चलने वाली ऊहापोह को लेखक ने बहुत बारीकी से उकेरा है।
तीसरे खंड में हीर हम्मो की शादी के एक दिन पहले की चहल-पहल और उसकी सखियों के साथ होने वाली चुहलबाजी का सुंदर चित्रण किया गया है,लेकिन अगली ही सुबह विवाह का यह उत्सव और उमंग से भरा हुआ दृश्य भयावह चीख पुकार में बदल जाता है। वहां के पुरुषों के नरसंहार और स्त्रियों के अपहरण का दृश्य बहुत हृदय विदारक है। हीर हम्मो सहित सभी महिलाओं को जिहादी अपने साथ रखैल बनाकर ले जाते हैं। इन महिलाओं के साथ होने वाले घृणित, कुत्सित और अमानुषिक व्यवहार का बहुत दुखद,त्रासदी पूर्ण किन्तु खुला वर्णन किया गया है, जिसे पढ़कर कभी रोंगटे खड़े हो जाते हैं, तो कभी आंखों से आंसुओं की झड़ी लग जाती है और कभी मन क्रोध और वितृष्णा से खिन्न हो जाता है।
हीर हम्मो की कथा के साथ-साथ सलमा और पद्मा की कहानी भी सामाजिक भेदभाव, पुरुषप्रधान समाज में नारी की पीड़ा, हिंसा और क्रूरता को दर्शाती है लेकिन लेखक ने उनके चरित्र को, पितृसत्ता को चुनौती देने वाला और स्वतंत्र रूप से जीवन व्यतीत करते हुए मारिया को गोद लेकर खुशहाल जीवन जीते हुए दिखाया है। स्त्री-विमर्श का यह भी एक पक्ष है कि अब स्त्री को सशक्त होकर अपने निर्णय स्वयं लेने होंगे ।
अगले खण्ड में लिच्छी और उसकी मां भगतो की चर्चा है जहाँ उन दोनों ने अपने पेट की आग को अनेक बार जमीदारों एवं सूदखोरों की भूख मिटाकर शांत किया था। दैहिक शोषण के साथ भगतो के कन्याभ्रुण की हत्या करने पर उसकी मर्मांतक पीड़ा का भी चित्रण किया गया है। चौधरी के बेटे राजन के विवाह में आए भारी-भरकम दहेज की चर्चा तत्कालीन समाज की सोच का यथार्थ चित्रण है। लिच्छी और उसके माता-पिता भगतो एवं लीला नाई के माध्यम से राजस्थानी परिवार के रहन सहन, भाषा, संस्कृति और रीतियों-कुरीतियों को दिखाया गया है।
एक दृश्य में टीवी पर ’’जेहाद का जनक’’ कार्यक्रम चल रहा है जिसमें मानवता के लिए समस्या बन गए ’’आइसिस’’ को समाप्त करने पर चर्चा है। इस्लामिक कट्टरवाद से पनपे आइसिस जैसे संगठन हमें सोचने पर विवश करते हैं कि वास्तव में धर्म क्या है? क्या कोई धर्म हिंसा और क्रूरता का समर्थन करता है? क्या इस्लाम को न मानने वाले सभी काफिर हैं और उन्हें या तो इस्लाम कुबूल कर लेना चाहिए या उन्हें खत्म कर देना चाहिए ?
सेनान पत्रकार कहता है सभी मुस्लिम आतंकी नहीं होते, इस्लाम में हिंसा की कोई जगह नहीं। इस पर एक प्रश्नकर्ता कहता है- ’’आप कहते हैं इस्लाम में आतंक और हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं, जबकि पिछले बीस बरस से आतंकवाद का जो सिलसिला विश्वस्तर पर चला आ रहा है उसकी जड़ें मुस्लिम समुदाय में ही गहरी होती दिखाई पड़ रही हैं।’’ (पृष्ठ 47) एक दृश्य में सलमा और पद्मा भी धर्म पर बातचीत करती दिखाई गई हैं। वह कहती है- ‘धर्म है तो प्रकृति के अनुरूप जीवन जीने का नाम, पर जबसे धर्माधिकारियों ने अपनी-अपनी बाटियाँ सेकना शुरू किया है तभी से धर्म का अधर्म हो गया है।’ ( पृष्ठ 134) धार्मिक अराजकता और धर्मांधता को कटघरे में खड़ा करते हुए। धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दे पर लेखक ने बहुत स्पष्ट राय रखी है । (पृष्ठ 208)
92 वर्ष के जॉन और जॉनी के लंबे सुखद दाम्पत्य का चित्रण युद्ध के माहौल में थोड़ा सुकुन देता है। अगले खण्ड में जॉनी की मृत्यु होने के बाद कैथरीना (पत्रकार) और जॉन के वार्तालाप के माध्यम से रूस यूक्रेन युद्ध की भयावहता, रूसी सैनिकों के अत्याचारों का वर्णन तथा द्वितीय विश्व युद्ध की घटनाओं का जिक्र है। साथ ही स्वेतलाना और ओलगा के संवाद, सिल्वा का किसी से आपबीती सुनाते हुए युद्ध क्षेत्र का त्रासदी पूर्ण वर्णन, सोफिया की बातें, रेडियो, टी.वी. पर युद्ध की भयानक दृश्यों वाली खबरें, यूक्रेन पर रूस द्वारा थोपे गए युद्ध में वहाँ के लागों की स्थिति और तकलीफों का मार्मिक वर्णन लेखक ने किया है, जिससे स्पष्ट होता है कि युद्धों की परिणति सदैव न केवल शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से कष्टकारी होती है, वरन् सभ्यता और विकास के बढ़ते कदमों को भी बहुत पीछे धकेल देती है।
अंतिम दृश्य में सलमा पद्मा को थियेटर की बात बताते हुए अंधे गायक का किस्सा सुनाती है। अंधा गायक किस्सागोई में बहुत निपुण है जो गीतों के बीच-बीच में अपने जीवन और जीवन-दर्शन से जुड़ी अनेक बातें बताते हुए प्रेम की बात को सर्वाेपरि मानता है। वह कहता है -’’दिमाग के दरवाजे पर विचार आपको निराश करेंगे। थोड़ी हिम्मत कर लो। दो सीढ़ियाँ उतरने का साहस जुटा लो। दिमाग के दरवाजे से दो-एक सीढ़ियाँ उतर कर दिल की कोठरी तक आ जाओ। प्रेम की तिजोरी तक आ जाओ। यह तिजोरी आपको कभी निराश नहीं करेगी। आँखें बंद कर सीढ़ी उतर जाओ । आँखें बंद कर के दिखता है कि देह के भीतर भी बसंत है, अंतहीन बसंत ।”
अंतिम दृश्य भावुकता भरा है जहाँ अंधे गायक के साथ आई लड़की ’’हीर हम्मो’’ उसके हाथ से गिरी हुई लाठी उसे पकड़ाती है और गायक उसे गले से लगा होता है। वह उसे कहती है मुझे इसी तरह अपनी बाहों में थामे रहो। जिहादियों के द्वारा दी गई नारकीय यातनाओं को सहते और उनसे मुक्ति के रास्ते तलाशती हीर हम्मो अंत में अपनी मंजिल पा ही लेती है। यह इस उपन्यास का आशावादी स्वर है जो स्त्रियों को विषम से विषम परिस्थितियों से निकल कर जीने की नई दिशा दे रहा है। सलमा,पद्मा और हीर हम्मो तीनों ही स्त्री पात्र परिस्थितियों से जूझते हुए अपने रास्ते स्वयं तलाशते हैं और अंत में सफल भी होते हैं।
यह लेखक के शब्दों का कमाल है कि सरल भाषा भी चित्रमयी लगती है। वर्णन चाहे जिहादियों की क्रूरता और महिलाओं के शोषण का हो या राजस्थान के गाँव की लिछमी या भगतो की जीवनगाथा का, बात दो सहेलियों की हो रही हो या टीवी पर कोई साक्षात्कार-चल रहा हो, भाषा उसी के अनुकूल दृश्य बिंब प्रस्तुत कर देती है। भाषा स्थिति और पात्रानुकूल परिवर्तित होती रहती है और उसे शब्द चित्र के रूप में प्रस्तुत कर देती है। कहीं कहीं जिहादियों द्वारा महिलाओं के साथ की गई ज्यादतियों का बहुत खुला वर्णन है जो यर्थाथ को तो बखूबी प्रस्तुत करता है, पर एक प्रश्न भी खड़ा करता है कि क्या कला और साहित्य में कलात्मक तरीके से उस बात को नहीं कहा जा सकता? वर्तनी संबंधी दो-चार अशुद्धियों को छोड़ दें तो पुस्तक की छपाई और मुख्य पृष्ठ पर बना चित्र आकर्षक बन पड़ा है। हीर हम्मो शीर्षक और आवरण पृष्ठ पर बना चित्र दोनों ही पुस्तक को पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ाते हैं। इस उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है कि वास्तव में साहित्य जीवन मूल्यों, समाजिक - समरसता, मानसिक स्वास्थ्य और संस्कृति को पोषित- पल्लवित करने वाला साधन है।
जीवन में अंधेरे और उजालों की टकराहट चलती रहती है। मनुष्य के पास जहाँ उजला आह्लादित करने वाला प्रेम है, वहीं अंधेरे को न्योता देते भयंकर हथियार और युद्ध भी हैं। हर युग में दोनों का अस्तित्व बना रहा है। अँधेरे जहाँ उजालों पर हावी होने के लिए कुछ न कुछ विध्वंसक करते रहते हैं, वहीं उजाले की ताकतों ने भी कभी पराजय स्वीकार नहीं की है, वरन् अपने ज्ञान, विवेक, ऊर्जा, साहस और धैर्य के माध्यम से नया इतिहास सृजित किया है। साहित्य ऐसा प्रकाश पुंज है जो तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय और मृत्योर्मा अमृतम् गमय के ध्येय के साथ पथ-प्रदर्शक की भूमिका का निर्वहन करता है और हमें चिंतन-मनन के लिए प्रेरित करता है। इस उपन्यास के माध्यम से भी लेखक ने अनेक प्रश्नों को इस अपेक्षा के साथ उठाया है कि हम उनसे जुड़े मानवीय पहलुओं को समझ कर एक शांत और प्रेममय पथ की ओर बढ़ने का सार्थक प्रयास करेंगे।