मोहन मंगलम
सरोजिनी नायडू गोपालकृष्ण गोखले को अपना ’’राजनीतिक पिता’’ मानती थीं। सरोजिनी के राजनीति में सक्रिय होने में गोखले के 1906 के कोलकाता अधिवेशन के भाषण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वाधीनता संग्राम में सदैव अग्रणी रहने वाली साहस और निर्भीकता की प्रतीक सरोजिनी से युवा शक्ति को आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी। वे भारत एवं विश्व भर में महिलाओं के लिए आज भी एक आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी 1879 को हैदराबाद में हुआ था। उनके पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे। वे कविता भी लिखते थे। माता वरदा सुन्दरी भी कविता लिखती थीं। सरोजिनी को भी अपने माता-पिता से कविता सृजन की प्रतिभा प्राप्त हुई थी। बचपन से ही कुशाग्र-बुद्धि होने के कारण सरोजिनी ने 13 वर्ष की आयु में ‘लेडी ऑफ दी लेक’ कविता रची। हैदराबाद के निजाम द्वारा मिले वजीफे से सरोजिनी को इंग्लैंड भेजा गया था, जहां उन्हें लंदन के किंग्स कॉलेज और कैम्ब्रिज के गिरटन कॉलेज में अध्ययन करने का मौका मिला। वे पढ़ाई के साथ-साथ कविताएँ भी लिखती रहीं। वहां के प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने सरोजिनी की बहुत प्रशंसा की। ‘गोल्डन थ्रैशोल्ड’ उनका पहला कविता संग्रह था। कविता संग्रह ’’बर्ड ऑफ टाइम’’ और ’’ब्रोकन विंग’’ के प्रकाशन के बाद उन्हें भारतीय और अंग्रेजी साहित्य जगत की स्थापित कवयित्री माना जाने लगा था। उनकी कविता के रंग, कल्पना और गीतात्मक गुणवत्ता के कारण उन्हें महात्मा गांधी ने ’’भारत कोकिला’’ की उपाधि दी थी। नायडू की रचनाओं में बच्चों की कविताएँ, देशभक्ति, रोमांस और त्रासदी सहित गंभीर विषयों पर लिखी गई कविताएँ शामिल हैं।
सरोजिनी ने इंग्लैंड में एक मताधिकारवादी के रूप में काम किया और ब्रिटिश शासन से भारत की आजादी के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आंदोलन की ओर आकर्षित हुईं। भारत की राजनीति में कदम रखने से पहले सरोजिनी दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी के साथ काम कर चुकी थीं। गांधीजी वहां की जातीय सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे और सरोजिनी ने स्वयंसेवक के रूप में उन्हें सहयोग दिया था। गांधीजी के विचारों से प्रभावित होकर सरोजिनी राष्ट्र के लिए समर्पित हो गयीं। सत्याग्रह हो या संगठन, हर क्षेत्र में उन्होंने एक कुशल सेनापति की भांति अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। सरोजिनी ने अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों का नेतृत्व किया और कई बार जेल भी गयीं। संकटों से न घबराते हुए एक धीर वीरांगना की भाँति गाँव-गाँव घूमकर देश-प्रेम का अलख जगाती रहीं और देशवासियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाती रहीं।
सरोजिनी को अंग्रेजी, बांग्ला, उर्दू, तेलुगु और फारसी का अच्छा ज्ञान था। स्थानीय लोगों की सुविधा के अनुसार वे वहां की भाषा में भाषण देती थीं। उनके वक्तव्य जनता को राष्ट्र की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रेरित कर देते थे। युवाओं में राष्ट्रीय भावनाओं का जागरण करने हेतु सरोजिनी ने एनी बेसेंट के साथ 1915 से 1918 तक भारत भ्रमण किया। पंजाब में सन 1919 में जलियांवाला बाग में हुए भीषण हत्याकांड के विरोध में सरोजिनी ने अपना ’’कैसर-ए-हिन्द’’ का खिताब लौटा दिया जो ब्रिटिश सरकार ने भारत में प्लेग महामारी के दौरान उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के लिए उन्हें प्रदान किया था। साबरमती आश्रम में स्वाधीनता की प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने वाले आरम्भिक स्वयंसेवकों में सरोजिनी शामिल थीं। 1922 में उन्होंने खादी पहनने का व्रत लिया। सरोजिनी ने 1924 में भारतीयों के हित में पूर्वी अफ्रीका और दक्षिण अफ्रीका की यात्रा की और अगले वर्ष 1925 में राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली भारतीय महिला अध्यक्ष बनीं। वे इस संगठन की प्रथम महिला अध्यक्ष थीं। 1928 तक वे इस पद पर रहीं।
प्रसिद्ध नमक सत्याग्रह में गांधीजी के साथ चलने वाले स्वयंसेवकों में से सरोजिनी नायडू भी थीं। गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद गुजरात के धरासणा में पिकेटिंग करते हुए जब तक सरोजिनी स्वयं गिरफ्तार न हो गईं, तब तक आंदोलन का संचालन करती रहीं। धरासणा में पुलिस ने शान्तिपूर्वक आंदोलन कर रहे अहिंसक सत्याग्रहियों पर घोर अत्याचार किए थे। सरोजिनी ने उस परिस्थिति का साहस के साथ सामना किया और अपने विनोदी स्वभाव से वातावरण को जीवंत बनाए रखा। नमक सत्याग्रह खत्म कर दिया गया। गांधीजी को सन् 1931 में लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में आमंत्रित किया गया। गांधीजी के साथ उस सम्मेलन में शामिल होने वालों में सरोजिनी भी थीं। सरोजिनी सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व करने वाली हस्तियों में प्रमुख थीं। इस दौरान उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा बार-बार गिरफ्तारी का सामना करना पड़ा।
स्वतंत्रता हेतु भारत के संघर्ष के बारे में जागरुकता बढ़ाने और अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने के लिए सरोजिनी ने संयुक्त राज्य अमेरिका तथा यूनाइटेड किंगडम सहित विभिन्न देशों की यात्रा की। उन्होंने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत का प्रतिनिधित्व किया और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एवं महिलाओं के अधिकारों के बारे में बात की।
सरोजिनी नायडू ने भारतीय समाज में फैली कुरीतियों के निवारण के लिए महिलाओं को जागृत किया। वे महिलाओं के अधिकारों की प्रबल समर्थक थीं और उन्होंने भारत में महिलाओं को सशक्त बनाने हेतु अथक प्रयास किया। सरोजिनी का मानना था कि भारतीय नारी कभी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव से समानता की अधिकारी रही हैं। उन्होंने अपने इन विचारों से महिलाओं में आत्मविश्वास जगाने का काम किया। सरोजिनी ने भारतीय महिलाओं के बारे में कहा था- “जब आपको अपना झंडा संभालने के लिए किसी की आवश्यकता हो और जब आप आस्था के अभाव से पीड़ित हों तब भारत की नारी आपका झंडा संभालने और आपकी शक्ति को थामने के लिए आपके साथ होगी और यदि आपको मरना पड़े तो यह याद रखिएगा कि भारत के नारीत्व में चित्तौड़ की पद्मिनी की आस्था समाहित है।”
भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद सरोजिनी नायडू उत्तर प्रदेश की राज्यपाल नियुक्त की गईं। वे भारत में राज्यपाल का पद संभालने वाली पहली महिला बनीं। 2 मार्च, 1949 को लखनऊ में दिल का दौरा पड़ने से सरोजिनी नायडू की मृत्यु हो गई। ’’भारत कोकिला’’, ’’राष्ट्रीय नेता’’ और ’’नारी मुक्ति आंदोलन की समर्थक’’ के रूप में उन्हें सदैव याद किया जाता रहेगा। उनके साहस, समर्पण और नेतृत्व ने लाखों भारतीयों को प्रेरित किया तथा आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा।