समीक्षा - डॉ. सत्यनारायण
व्यग्य एक ऐसी विधा है जिसमें हमारे समय की और समाज की विडंबनाओं को उजागर किया जाता है। एक ऐसा प्रहार कि ’’जबरा मारे और रोने न दे।’’ ’’रागदरबारी’’ से ऐसे उपन्यासों की शुरुआत होती है। जिसमें तत्कालीन समाज और व्यवस्था पर फोकस करते हुए उसकी परतें उधेड़ी। बाद में हरिशंकर परसाई व शरद जोशी के विपुल लेखन के कारण आज वह हिन्दी में एक स्वतंत्र विद्या के रूप में सर्वमान्य है।
राजस्थानी के महत्वपूर्ण साहित्यकार श्री देवकिशन राजपुरोहित का उपन्यास ’’बैकुंठी’’ की भी शुरुआत व्यंग्य के रूप में ही होती है पर बाद में वह सामाजिक यथार्थ के अंकन के रूप में बदल जाता है। उपन्यास का अनुवाद कल्याण सिंह शेखावत ने राजस्थानी से हिन्दी में किया है। सहज, सरल प्रवाहमान भाषा में किया गया यह अनुवाद अच्छा है। उपन्यासकार ने दूसरे माध्यम से हमारे समय की विडंबनाओं, अर्थ लोलुपता, अंधविश्वास आदि समाज में प्रचलित पाखंडों पर सीधा प्रहार किया है।
खेमजी जिनकी एक दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। जब उनका जीव ऊपर जाता है तो चित्रगुप्त उनका खाता खोलते हुए कहते हैं कि - ’’अरे पापी तेरे दर्शन कर ले कोई तो धर्मात्मा होते हुए भी उसे नरक में जाना पड़ेगा। खोटे जीव, तुझे तो अब नरक ही भोगना पड़ेगा।’’ खेमजी चित्रगुप्त से कहते हैं- ’’साहब मैंने चौदह चौमासे किए। चार कुम्भों में स्नान किया। लाखों रुपयों का दान किया है। आपके अनुचरों की गलती से, ये सब खाते में लिखने से रह गए होंगे।’’ वे चित्रगुप्त से एक बार घर वालों से फोन पर बात कराने के लिए विनती करते हुए कहते हैं। मैं आपसे अब तक कमाया सारा दे दूंगा। मुझे फिर तो स्वर्ग जाने देना। अपने बेटे भँवर को सारे मकान, दुकान व धन दौलत मंदिर को देने के लिए कहते हैं। लेकिन भँवर मना कर देता है कि आपके अकेले स्वर्ग में जाने के कारण आपके पीछे हम चालीस लोग नरक भोगने को विवश होंगे। इसलिए आप चित्रगुप्त जी जैसा कहते हैं वही करो।
असल उपन्यास इसके बाद ही प्रारंभ होता है। मृत्युभोज के बाद से कथानक आगे बढता है। धीरे धीरे भँवर जी की आँख खुल जाती हैं। और वे अपने पिता द्वारा किए गए गलत कामों को परे धकेल कर ईमानदारी और नेकी पर चलते हुए व्यवसाय करते हैं। वे बताते हैं कि ईमानदारी से भी व्यवसाय फलता-फूलता है। एक तरह से वे खेम जी द्वारा किए गए बेईमानी, भ्रष्टाचार को नकारते हुए व्यापार के साथ सामाजिक सुधार, अंधविश्वासों के खिलाफ तथा दहेज के खिलाफ व विधवा विवाह जैसे कार्यों में बढ चढ कर हिस्सा लेते हैं। स्वयं अपनी बहन का पुनर्विवाह कराते हैं जो छोटी उम्र में विधवा हो गई थी। अपने बेटे के विवाह में दहेज नहीं लेते। वृक्ष लगाते हैं। एक तरह से एक आदर्श गाँव की स्थापना। जब उनकी मृत्यु नजदीक आती है तो उन्हें आभास हो जाता है। जीव के देह से निकलते ही वे धर्मराज द्वारा भेजी पालकी में बैठ जाते हैं। बरसों बाद किसी के लिए स्वर्ग का द्वार खुलता है। नरक से लोग देखते हैं। उनमें उनके पिता खेम जी भी होते हैं। वे कहते हैं कि मेरी कमाई पर मौज उड़ाते हुए स्वर्ग आया है। तो भँवर जी कहते हैं कि ’’आपकी सम्पत्ति भाइयों में बाँटकर जो मेरे पास थी उसमें से अपने लिए एक छदाम भी नहीं रखी।’’ खरा कमाया। खरा खाया। खरा खर्चा। दुकान तो चलाई पर दुकान के खोटे बाट-माप नहीं रखे। खोटा माल नहीं बणाया। भोपा-डफरी और पाखंड नहीं किए। गाँव में बहुत से वृक्ष लगाए। उनको सींचा। उन पर हजारों चिड़ी, कमेड़ियों अपने घोंसले बनाए। जंगल में जीव जानवरों के लिए और राहगीरों के लिए पानी का इंतजाम किया।’’ यही कारण है कि भँवर जी के जाने के बाद मनुष्य ही नहीं एक दिन तो गायों तक ने चारा नहीं खाया।
सहज पहल में लिखे इस उपन्यास का अनुवाद भी मूल की तरह ही हुआ है। इसमें लोक की झूठी मान्यताओं, रूढियों, अंधविश्वासों और किसी भी तरह पैसा कमाने की लालसा पर प्रहार करते हुए उन मूल्यों की स्थापना पर ध्यान केंद्रित किया गया है जिससे एक आदर्श समाज की स्थापना की जा सके। आदर्श नायक भँवर जी की सृजना उपन्यासकार लोक गाथाओं के नायक की तरह की है। भँवर जी एक एक कर उन मान्यताओं, धारणाओं को खण्डित करते हैं जिनके कारण समाज पिछड़ा हुआ है। मेहनत व ईमानदारी के साथ व्यवसाय करते हुए सामाजिक सुधार का आदर्श भी प्रस्तुत करते हैं। उपन्यासकार के अनुसार सच्चे अर्थों में स्वर्ग के हकदार खेम जी नहीं भँवर जी हैं जो ईमानदारी के पथ पर चलते हुए अपना ही नहीं समाज का भी भला सोचते हैं। लोक कथा के नायक भँवर जी ही आज के नायक हैं।