रामा तक्षक (नीदरलैंड्स)
एक छोटी सी घटना है मेरे अपने बचपन की। यह घटना भले ही छोटी हो परन्तु बड़ी गहरी चोट करती है। ’’राम’’ नाम शब्द भी छोटा है। दो ही अक्षरों का है। एक सम्पूर्ण मंत्र है। यदि यही मंत्र, मानव मन का भी मंत्र बन जाए तब जीवन की सजगता की गहन परतों का पता देता है।
मैं गर्मी की छुट्टियों में नानी के पास गया था। नानी काशीपुर, नैनीताल के पास रहती थी। मेरे नाना भी जीवित थे। नाना दिनभर हुक्का गुड़गड़ाते। उनका दिनभर हुक्के की गुड़गुड़ाहट के इर्द-गिर्द ही व्यतीत होता। चाय पी लें तो हुक्का चाहिए। भोजन कर लिया तो हुक्का। सुबह घूम आए तब भी और कोई मेहमान आ जाए, तब भी उनकी आवभगत भी, हुक्के से ही होती। जब भी कोई आता हुक्के को नया जीवन दिया जाता। हुक्के के, सिर वाले, अलग होने वाले ऊपरी भाग, चिलम में नई तम्बाकू की परत जमाई जाती। उस तम्बाकू पर एक गोल ठेकरी रखी जाती। चिलम में ठीकरी के ऊपर नई आग के अंगारे रखे जाते। हुक्के की देह से पुराना पानी निकाल दिया जाता। इस पानी की तम्बाकू सड़ान्ध से बचने के लिए, मैं कहीं दूर, पेड़ के नीचे आ बैठता। हुक्के में नया पानी भरा जाता। आग घर में हमेशा जलती रहती। अतः हुक्के के लिए अँगारे भी सदैव उपलब्ध रहते।
मेरा जन्म एवं मेरी परवरिश ऐसे परिवार में हुई जो पीढ़ियों से तंबाकू के सेवन से दूर रहता आया है। यहां तक की तम्बाकू को छूना भी पाप माना जाता है। यदि कोई तम्बाकू सेवन करने वाला मेहमान घर पर आ जाता तो बड़ी कठिनाई होती। मेहमान बीड़ी या सिगरेट अपने साथ ही लाते थे। कभी अनायास मेहमान को किसी कारणवश एक दो दिन लम्बा ठहरना पड़ता तब तो उनके तम्बाकू सेवन की व्यवस्था गांव में जोशी जी की छोटी सी दुकान से खरीद कर की जाती।
जोशी जी को तंबाकू का सेवन करने व तम्बाकू को न छूने के बारे में मेरी पारिवारिक स्थिति का पता था। इसलिए वह बीड़ी या सिगरेट के पैकेट को एक लंबे धागे में बांधकर मुझे दे देते। धागे में लटकते हुए बीड़ी सिगरेट के पैकेट को घर पर लाकर मैं मेहमान के हवाले कर देता। इस इसलिए जब भी मैं नाना नानी के पास होता मुझसे कोई भी हुक्का में तंबाकू या हुक्के में पानी भरने के लिए नहीं कहता।
इसी विशेष कारण से मैं नानी के कमरे में सोता। क्योंकि नाना के कमरे में हुक्का गुड़गड़ाने की और तंबाकू की महक सदैव बनी रहती। उनके बिस्तर और कपड़ों में भी। उनके हाथ पर पीलापन, हुक्के की नाल पकड़ने वाला भाग, स्थायी रुप से बना रहता।
बाहर अँधेरा हो चुका था। सोने के कमरे में लालटेन की रोशनी थी। नानी मुझे आपबीती सुना रही थी। यह आपबीती उस समय की थी जब मेरे नाना और नानी इस जमीन को खरीदकर यहां रहने लगे थे। यहाँ चारों तरफ जंगल ही जंगल था और जंगली जानवर भी थे। शुरू के दिनों में तो रात को जंगली जानवरों के खतरे से बचने के लिए, विशेषतः परिवार के बच्चों की सुरक्षा के लिए, रात भर मोटी मोटी लकड़ियों की आग जलानी पड़ती थी।
यह आप बीती मुझे बहुत ही रोचक लग रही थी। तभी नानी को कल के काम के बारे में याद आया। नानी को अगले दिन सुबह कुछ काम था। इस काम की तैयारी के लिए उन्हें दूसरे कमरे में, अँधेरे में, कुछ ढूंढना था। उन दिनों बिजली की रोशनी नहीं थी। उनको लालटेन की जरूरत थी ताकि अपनी कल की तैयारी कर सकें।
नानी ने कहा ’’मैं लालटेन ले जा रही हूं थोड़ी देर के लिए।’’
मैंने कहा ’’नानी लालटेन मत ले जाओ मुझे डर लगता है।’’ नानी ने कहा ’’तुम्हारे पास भगवान राम हैं। डरने की कोई जरूरत नहीं है।’’ मैंने नानी से कहा ’’नानी आप भगवान राम को साथ ले जाओ पर आप लालटेन यहीं छोड़ जाओ।’’
नानी की यह बात बहुत बरसों बाद, रामचरितमानस के अध्ययन के बाद, समझ में आयी। राम को जब वनवास के जाने के बारे में सुनने को मिलता है तो वह तनिक भी, विचलित हुए बिना, पिता के वनवास के आदेश को, राजतिलक की अपेक्षा, सहज अँगीकार कर लेते हैं।
’’जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौं कानन सत अवध समाना।।’’
राम का जीवन के प्रति स्पष्ट संकेत है कि माता-पिता का आदेश है तो कानन यानी वन भी मेरे लिए अवध समान हो जाएगा। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरा राजतिलक हो। राजतिलक एक दिखावा है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मैं वन में रहूं। वन भी एक दिखावा है। वन भी अवध समान ही हैं। यह पढ़कर मेरे दिमाग में, नानी के लालटेन ले जाने का प्रसंग, एक प्रश्न रुप में, बिजली की तरह कौंधा।
नानी की जरूरत पर तो मैं उनको लालटेन दो मिनट के लिए भी ले जाने नहीं दे रहा था। मुझे अंधेरा हो जाने का भय खाए जा रहा था। यहां तो राम चौदह वर्ष के लिए वनवास जाने को तैयार हैं। बिना विचलित हुए।
मैंने स्वयं से ही पूछा - आखिर रहस्य क्या है ?
मेरी नानी का यह कथन कि ’’भगवान राम तुम्हारे साथ हैं।’’ उनका यह जो संदेश है वह शब्दों से परे है। शब्द केवल इशारा भर हैं। उनका कहना था कि स्थिति को स्वीकार करो और स्वीकार भाव से चित्त में उतर जाओ, अन्तर की यात्रा करो। वहां कोई डर नहीं है। वहां लालटेन के प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। ब्रह्मांड में उजाले का और प्रकाश का ’’होना’’ है। यह होना एक घटना है। जबकि ’’डर’’ एक विचार है। ’’दुःख’’ एक विचार है। ’’उजाला’’ एक स्थिति है और ’’अंधेरा’’ भी एक स्थिति भर है।
नानी के शब्दों का गहरे में अर्थ है कि इंद्रियों की दौड़ को वापस समेट लो। इंद्रियों की बाहर की तरफ दौड़, सदैव एक डर के साथ, बनी रहेगी। इस बाहर की दौड़ में गिर जाने का खतरा भी सदैव बना रहेगा। जब अंतर यात्रा पर उतरोगे तो बाहर का डर, अपने आप समाप्त हो जाएगा। डर विलुप्त, विलीन हो जाएगा। अंतर की यात्रा में गिरने का खतरा नहीं है। राम के जीवन में सर्वत्र ’’स्वीकार भाव’’ दिखाई देता है। राम परिस्थितियों के साथ जीते हैं। परिस्थिति चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल हो। इस बात का उनके जीवन पर कोई असर नहीं पड़ता।
जीवन अपने आप में पूर्ण है, अनुकूल स्थिति में भी और प्रतिकूल परिस्थिति में भी। यह बात राम के जीवन में पग पग पर दिखाई देती है। हर क्षण दिखाई देती है। उनके जीवन में ’’स्वीकार भाव’’ अनुपस्थित नहीं है, सदैव उपस्थित है। राम के जीवन में ’’स्वीकार भाव’’ ही जिज्ञासा का धरातल है और जिज्ञासा का धरातल ही उनको अपनी योजनाओं की सफल क्रियान्वित की समझ देता। राम विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए योजना बनाते हैं। अपनी योजनाएं को सफलतापूर्वक कार्यान्वित करने तक पूर्ण धैर्य भी रखते हैं। यही स्वीकार भाव और यही समझ उनके नेतृत्व का आधार है। परिस्थिति चाहे जैसी भी क्यों न हो! चाहे हलचल हो या सन्नाटा।
सन्नाटे की अपनी सत्ता है। सन्नाटे की आहट आप भी सुन सकते हैं। शर्त केवल और केवल मात्र एक है। वह शर्त है - जब आप भी मानसिक रूप से, शारीरिक रूप से, तन से, मन से, उस क्षण में, जो वर्तमान में आपके समक्ष सन्नाटे के रूप में खड़ा है, उपस्थित हैं। तभी आप सन्नाटे की आहट सुन सकते हैं। आप सन्नाटे के साथ एकरस हो सकते हैं।
यही क्षण आपको स्थितप्रज्ञ होने की चुनौती देता है। आपके स्वीकार भाव को चुनौती देता है। यदि आप निर्विचार हैं, उस क्षण में, उपस्थित हैं, उस परिस्थिति में उपस्थित हैं। और परिस्थिति को पूर्णतया स्वीकार करने में, कहीं भी मन में, उस परिस्थिति के प्रति, प्रतिकार नहीं है। ऐसी स्थिति में ही स्वीकार भाव घटता है। स्थितप्रज्ञ होने की घटना घटती है।
यदि आप स्थितप्रज्ञ हो जाएँ, तभी आप सन्नाटे की आहट को सुन पाएंगे। आप अपनी चेतना तक पहुंच पाएंगे। आप अपने को पहचान पायेंगे। कहीं गहरे में इस प्रश्न का उत्तर अनुभव कर पायेंगे कि ’’मैं कौन हूँ ?’’
राम के व्यक्तित्व में यही स्वीकार भाव, राजतिलक के अवसर एवम् सिंहासनारूढ़ होने की अपेक्षा, वनवास का आदेश सुनने से लेकर, पिता दशरथ के अस्वस्थ होते हुए भी एवम् मां कौशल्या को विव्हल देखकर भी राम विचलित नहीं होते हैं। पेचिदगियों से भरी पारिवारिक स्थिति में भी, उनको परिस्थिति का स्वीकार भाव, अविचलित बनाए रखता है।
वनवास का आदेश सुन वे स्थिति को भांपते हैं, तटस्थ बने रहते हैं। बीमार पिता के पास जाते हैं, रुदन करती माता के पास जाते हैं। राम अपने माता पिता के पैर छूते हैं। सहर्ष अपने माता पिता की जीवन-ऊर्जा का, चरणस्पर्श कर, आचमन मन करते हैं।
’’रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा।।’’
यही स्वीकार भाव, राम को , इस प्रतिकूल परिस्थिति को, अनुकूल बनाने में, उस क्षण को उसी की पूर्णता में जीने में, सहायक बनता है। राम अपने गुरु वशिष्ठ से भी शीश नवाते हुए विदा लेते हैं।
’’एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा।’’
स्वीकार भाव आपको जीवन की ’’अनुभूति’’ की यात्रा करवाता है। इसके ठीक विपरीत ’’अनुमान’’ आपको जीवन के दूसरे छोर पर ला खड़ा करता है।। अनुमान के लिए स्वीकार भाव में कोई स्थान नहीं है। स्वीकार भाव में आप ’’अनुमान’’ से दूर और अनुभव के पास हैं, अनुभव की गोद में हैं।
जीवन के प्रति यही स्वीकार भाव उनके धैर्य का आधार है। यही धैर्य उनकी कठिन परिस्थितियों को साधने की कला बन जाता है। उनको सही निर्णय के लिए भी प्रेरित करता है। यही स्वीकार भाव सही निर्णय के रुप में उनकी सफलता का मार्ग बन जाता है।
जब जीवन सरल तरीके से चल रहा हो और उसमें अचानक कुछ परिस्थितियां, समय की राह को ही बदल दें तो जो आपके मस्तिष्क में चिंतन क्रियाओं का बहाव शुरू होगा। यह सारा बहाव,हमसे हमारा वर्तमान छीन ले जाता है। हमारे सामने एक झंझट खड़ा हो जाता। यही एक छोटा सा क्षण है जो हमारे जीवन के संतुलन को तौलता है। यदि हम उस झंझट को स्वीकार कर लें। इसी स्वीकार भाव से, इस शुरू हुए नये झंझट की दिवारें, एक एक कर गिरनी प्रारम्भ हो जाती हैं।
जब जब हम आशक्त होते हैं तो हमारी चिंतन प्रक्रिया, हमारी पूरी जीवन धारा, उसी तरफ, उसी आशक्ति की ओर जीवन ऊर्जा खिंचती चली जाती है। विपरीत परिस्थितियां सदैव व्यक्ति के सामने दो विकल्प खड़े करती। एक विकल्प तो यह कि व्यक्ति उस परिस्थिति को स्वीकार भाव से पूर्णतया स्वीकार कर, अपने मानसिक संतुलन को बनाए रखते हुए, अपनी जिज्ञासा को खोजते हुए उस प्रतिकूलता का अध्ययन कर समाधान ढ़ूढ़े। दूसरा विकल्प है कि हम सिर्फ मानसिक तौर पर चिंतत हो जायें, समय को कोसने लगें। पागलपन के दौरे पड़ने लगें और हम पागल हो जायें।
राम का जीवन एक सामान्य व्यक्ति का जीवन है। उदाहरण के तौर पर यदि आप देखें कि जब राम वनवास काल में थे और उन्होंने रावण की चाल में आकर, सोने के हिरण का शिकार किया। उस शिकार को जब राम लेने गए तो उस समय जो उनका व्यक्तित्व है। वह एक सामान्य व्यक्ति का व्यक्तित्व है। उसमें परमात्मा का स्वरूप नहीं दिखाई देता। लेकिन जब उनको सीता के अपहरण की जानकारी होती है और उसके बाद की जो घटना है वह राम के जीवन का स्वीकार भाव है। उस स्वीकार भाव में स्थित रहते हुए, सीता को वापस कैसे लाया जाए यह रणनीति बनाते हैं। इस रणनीति में उनके स्वीकार भाव के साथ साथ उनका धैर्य, उनकी जिज्ञासा और उनका नेतृत्व ये सभी गुण दृष्टिगोचर होते हैं। राम योजना को सफलतापूर्वक क्रियान्वित करने के लिए पूरी रणनीति बनाते हैं। उस रणनीति के लिए वह यथोचित व्यक्ति एवम् सही पात्र चुनते हैं। सही पात्र चयन का आशय है कि पचास प्रतिशत सफलता।
सन्नाटे की आहट को सुनने का धैर्य व्यक्ति को कालजयी बना देता है। यह बात राम के जीवन में हर पल दृष्टिगोचर होती है। रामचरितमानस या रामायण का कोई भी प्रसंग हो, जब सीता के स्वयंवर के लिए जनकपुर में शिव धनुष तोड़ रहे थे तब की बात हो या अयोध्या में उनका वनवास की तैयारी हो रही है तब भी और जब राम ने वन के लिए गमन किया तब भी। बार बार उनका असीम धैर्य चरितार्थ हुआ।
जब सीता का अपहरण हुआ उस समय तो उनके ऊपर सन्नाटे का पहाड़ टूट पड़ा था । लेकिन हर स्थिति में अपने आप को सन्नाटे की आहट के साथ बनाए रखा।
राम के जीवन का जो चित्र है उसमें यह सर्वत्र दिखाई देता है कि जीवन ’’अब’’ है। इस वर्तमान क्षण में है। परिस्थितियां चाहे प्रतिकूल हो जायें या अनुकूल। परिस्थितियां चाहे प्रिय हों या अप्रिय हों। चाहे प्रकाश हो या फिर घोर अंधेरा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उन परिस्थितियों को मानसमात्र संपूर्ण रूप से जी सके। यही राम के जीवन का सबसे बड़ा मूल मंत्र है।
स्वीकार भाव, व्यक्ति को ’’अब’’ और ’’वर्तमान क्षण’’ की नब्ज की पहचान कराता है। कल नहीं, ’’अब’’। आज नहीं, ’’अब’’ में जीवन के तार, समय की कुञ्जी को जीने के लिए कहीं गहरे में आत्मसात कराता है। इस आत्मसात की अनुभूति में ’’मैं ’’ का कोई स्थान नहीं है। वहाँ सब होना है। सब राममय है।
वाल्मीकि कृत रामायण हो या फिर तुलसीकृत रामचरितमानस राम के जीवन में सन्नाटे की आहट की प्रतिध्वनि जीवन के हर महत्वपूर्ण मोड़ पर सुनाई पड़ती है। जो कि उनके धैर्य में स्पष्ट रूप से प्रतीत होती है। उनकी एकाग्रता भी इसी सन्नाटे की प्रतिध्वनि का ही प्रतिबंब है। राम का संदेश है - मेरा जीवन मेरे ’’स्वीकार भाव’’ में है।