डॉ. अर्पण जैन 'अविचल'
जीवन और जतन में, प्रेम और विरोध में, राग और द्वेष में, विरोध और समर्थन में, संवाद और सम्बन्ध में, व्यापार और विनिमय आदि में भी कोई तत्व यदि सहायक है तो वह केवल भाषा है। किसी भी राष्ट्र की अस्मिता और अखण्डता में कई कारक उत्तरदायी होते हैं, उनमें से एक कारक उस राष्ट्र का भाषाई ढाँचा भी है। भाषा न केवल लोगों के बीच संवाद का माध्यम होती है बल्कि समाज, संस्कृति और जनमानस के बीच समन्वय का केन्द्र होती है। यह भी निर्विवाद सत्य है कि भारत ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा वाला राष्ट्र है। इसका अर्थ यह हुआ कि समस्त विश्व एक परिवार है और इसी परिवार के बीच समन्वय का केन्द्र उनके बीच की भाषा है। भारत की प्रतिनिधि भाषा के रूप में सर्वमान्य भाषा हिन्दी ही है। कहीं भी भारत का भाषाई परिचय दिया जायेगा तो निश्चित तौर पर वह परिचय हिन्दी से आरम्भ होगा। भारत में जन्मी किन्तु वर्तमान में विश्व के तमाम उन राष्ट्रों में भी जहाँ भारतवंशी निवास कर रहे हैं, उन सभी देशों में हिन्दी पहुँचने लगी है। आज विश्व के 100 से अधिक देशों में हिन्दी भाषी भारतीय रहते हैं। गर्व इस बात पर भी है कि 50 से अधिक देशों के विश्वविद्यालयों में तो हिन्दी पढ़ाई भी जाती है।
भारत की वैश्विक मज़बूती के साथ ही जनसंख्या की दृष्टि से भी भारत विश्व का सबसे बड़ा राष्ट्र है और जिस राष्ट्र की आबादी अधिक उसका बाज़ार भी सबसे बड़ा माना जाता है क्योंकि उत्पाद की खपत अधिक होती है, उपभोक्ता अधिक होते हैं। जिस राष्ट्र का सबसे बड़ा बाज़ार होता है, उसकी भाषा, संस्कृति और निर्णयों का महत्त्व भी उतना ही अधिक होता है। इस समय भारत के वर्चस्व के बढ़ने से भारत की भाषा यानी हिन्दी की स्वीकार्यता भी विश्व में अधिक हो गई है। विश्व की सबसे बड़ी भाषा के रूप में हिन्दी की स्थापना ने विश्व को हिन्दी के प्रति उदारभाव रखकर सीखने–समझने के लिए मजबूर भी कर दिया है। जिस तरह अमेरिका में काम–काज के लिए अंग्रेज़ी सीखना अनिवार्य है, फ़्रांस में कामकाज के लिए फ़्रेंच आवश्यक भाषा है, चाइना में काम करने के लिए मेंडीरिन भाषा की समझ होनी ज़रूरी है, उसी तरह विश्व के किसी भी देश से आने वाले लोग जो भारत में व्यापार, नौकरी या कामकाज करना चाहते हैं, उन्हें हिन्दी की समझ होना अनिवार्य है।
भारत में काम करना है तो हिन्दी में सबल होना ज़रूरी है और इसीलिए विश्व के कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी सिखाई जाने लगी है। जिस तरह भारत में अंग्रेज़ी या अन्य भाषाओं को सीखाने के कोचिंग संस्थान खुले हुए हैं, उसी तरह विश्व के कई देशों में हिन्दी सिखाने के लिए शिक्षक, ऑनलाइन ट्यूटर, पेशेवर हिन्दी कार्यशालाओं का संचालन किया जा रहा है ताकि भारत से आर्थिक सम्बन्ध, कामकाजी सम्बन्ध या कहें सांस्कृतिक संबंधों का ताना-बाना मज़बूती से बना हुआ रहे और यह सब हिन्दी के आधार पर ही बन सकता है।
जैसे अठारहवीं सदी ऑस्ट्रिया और हंगरी की रही है तो उन्नीसवीं सदी ब्रिटेन और जर्मनी के प्रभुत्व को दिखाती है, वैसे ही बीसवीं सदी अमेरिका एवं सोवियत संघ के प्रभुत्व को दिखाती रही, उसी तरह वर्तमान सदी यानी 21वीं सदी भारत और चीन के प्रभाव की स्वीकार्यता का दर्शन करवा रही है। कोरोना जैसी भयावह बीमारी के वैक्सीन का निर्माण भारत ने करके विश्व के अन्य देशों को भी सहायतार्थ उपलब्ध करवाया। वर्तमान में रूस-यूक्रेन के बीच महीनों से जारी जंग के दौरान भी यूक्रेन से हज़ारों भारतीय छात्र सकुशल भारत आए, उस दौरान उन छात्रों ने केवल तिरंगा ही अपने हाथों में रखा, यह भी सम्पूर्ण विश्व ने देखा और भारत के वर्चस्व को स्वीकार किया। इसी तरह चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर कदम रखने वाला देश एकमात्र भारत ही है। वर्तमान में भारत और चीन तेज़ी से प्रगति करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से हैं तथा विश्व स्तर पर इनकी स्वीकार्यता और महत्ता स्वत: बढ़ रही है। इन दोनों देशों के पास भरपूर प्राकृतिक संपदा और भरपूर मानव संसाधन हैं जिसके कारण ये भावी वैश्विक संरचना में उत्पादन के बडे स्रोत बन सकते हैं। शक्ति सम्पन्नता का केंद्र भी इन दोनों देशों में ही होने से विश्व इस बात को स्वीकार भी रहा है और इनके वर्चस्व की तूती भी विश्व में बोल रही है। भारत के प्रधानमंत्री की छवि और वैश्विक दूरदृष्टि भारत को लगातार विश्व में अव्वल बना रही है। इन्हीं कारणों से भारत की अत्यधिक सबलता हिन्दी को भी वैश्विक रूप से उतना ही मज़बूत कर रही है।
भारतीय सिनेमा का भी वैश्विक विस्तार हो रहा है, विश्व के कई देशों में बॉलीवुड की फ़िल्में, ओटीटी का प्रदर्शन जारी है, इसी तरह व्यापार का यह रास्ता भी भारत ने हिन्दी के सहारे ही विश्व में फैलाया है। यही नहीं बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कदम मय निवेश भारत में बड़ रहे हैं जो आर्थिक रूप से भारत के लिए लाभप्रद भी है।
विश्व में भारत की उदारवादी छवि होने से विश्व बाज़ार का रुख भारत की ओर बड़ी आशा की नज़र से देख रहा है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लगातार भारत में निवेश भी बढ़ा रही हैं और कामकाज का भी विस्तार कर रही हैं। उन सभी कंपनियों में अंग्रेज़ी के अलावा हिन्दी जानना, लिखना और समझना अनिवार्य जैसा ही है। वैसे भी कम्पनी के दफ़्तर के बाहर यदि व्यक्ति को चाय भी पीना होगी तो संवाद करने के लिए हिन्दी भाषा को प्राथमिकता देनी ही होगी, इस कारण से भी विश्व के अनेक देश हिन्दी सिखा रहे हैं। हिन्दी विश्व की पहली भाषा बन चुकी है। वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर सिडनी कुलबर्ट द्वारा 1970 ई. में इकट्ठे किए गए आँकड़ों के अनुसार हिन्दी विश्व में तीन बड़ी भाषाओं में से एक है, शेष दो भाषाएँ चीनी और अंग्रेज़ी। हिन्दी एशिया महाद्वीप की ही नहीं बल्कि विश्व में हिन्दी भाषियों की संख्या वर्तमान में अंग्रेज़ी जानने वालों से भी अधिक बढ़ती जा रही है।
वर्तमान में हिन्दी के माध्यम से ही विश्व की जनता से भारत की जनता का संवेदनात्मक रिश्ता कायम हुआ है। प्रो. हरमोहेन्द्र सिंह का कहना है कि ‘अमेरिका व कनाडा जैसे देशों में हिन्दी भाषा की उन्नति तथा विकास का मसौदा तैयार कर संसद में अलग से बजट पारित किया गया। अतः विश्व में हिन्दी का स्थान उसकी समाहार शक्ति और विशालता का परिचय है। विश्व बाज़ार में भारत और दक्षिण एशियाई संगठन की बढ़ती हुई भूमिका की पृष्ठभूमि में हिन्दी के महत्त्व में वृद्धि होती जा रही है। 21वीं सदी में वैश्विक बाज़ार में देखा जाए तो विश्व के एक बड़े बाज़ार में शिक्षित-अशिक्षितों के व्यवहार की भाषा भी हिन्दी है।
चीन, इंग्लैंड, अमेरिका तथा अन्य यूरोपीय देशों में व्यापार के आयात-निर्यात के लिए किसी एक भाषा की आवश्यकता को पूरा करती है हिन्दी भाषा। यह एक बड़े समाज की भाषा है, उसका एक बृहतर रूप भी है, जिसमें न केवल भारत की बल्कि भारत के बाहर त्रिनिदाद, मॉरिशस, फ़िज़ी, अमे
डॉ. अर्पण जैन 'अविचल'
पत्रकार एवं स्तंभकार