रामा तक्षक
मुझे ठीक से ध्यान है कि पहली बार जब मैं 1991 में मेरी पत्नी के साथ खजुराहो गया था तब मेरी पत्नी ने खजुराहो पर लिखी गई एक पुस्तक खरीद कर मुझे उपहार स्वरूप दी थी। उन्होंने इस पुस्तक के भीतरी पन्ने पर कलम से लिखा था ’’यह खजुराहो है, खजुराहो ! जीवन की पूरी समझ यहाँ पत्थर में खड़ी है।’’ इन पँक्तियों के नीचे उनके हस्ताक्षर हैं। आज भी सँजोए हूँ उस प्यार की धरोहर पुस्तक को। बात ही कुछ ऐसी है। खजुराहो जगह ही कुछ ऐसी है।
इन पत्थर की मूर्तियों को देखने पर लगता है जैसे जीवित हैं। यह कलाधर की कारीगरी है कि इन पत्थरों में प्रेम झर रहा है। इनमें प्रेम करने की क्षमता है। प्रेम असीम है। जितना भी जानो लगता है कम है। ज्यादा जानने की तीव्र ईच्छा होती है। मन्दिरों के प्राँगण से बाहर जाने की ईच्छा नहीं होती। मन्दिर से बाहर निकलो तो पैर पीछे की तरफ पड़ते हैं। यहाँ कुछ ऐसा है जो परिपूर्ण है। परिपूर्ण को जानने की राह है। उसे जानने का घटता मौन रास है।
जब भी खजुराहो में होता हूँ तो मैं हर बार मन्दिरों में सुबह सुबह घूमने जाता हूँ। पश्चिमी समूह के मन्दिरों के प्राँगण में पहुँचते ही एक हजार वर्ष पूर्व की स्थिति मेरे समक्ष जीवन्त हो उठती है। शरद सुबह की सुहानी धूप में, सावन की फुहारों बीच या जेठ की दुपहरी में भी मूर्तिकारों, मजदूरों व निष्णात कलाधर समूह के अपने अपने काम में व्यस्त होना, छैनी हथोड़ों की टक टक, धम धम की गूँज मेरे कानों में सुनाई पड़ती है। ऐसा एक दृश्य इस आँगन में पहुँचते ही मेरे समक्ष उपस्थित हो जाता है। समय अतीत में दौड़ने लगता है। इस कर्माधार ऊर्जा का कम्पन चहुँओर अपना साम्राज्य बना लेता है।
इसी दृश्य में मुख्य कलाधर का चिंतन, मूर्तिकारों को निर्देश, कौन सा पत्थर किस आकार का, किस स्थान विशेष में लगेगा। किस पत्थर को कौन सा मूर्तिकार, किस मानवीय भाव को उकार कर आकार देगा। यह सब कुछ ही क्षणों में मेरे इर्दगिर्द, मुझे घेर लेता है। यह सब अनुभव की आंखों से देखकर, एक शाश्वत प्रश्न भी मेरे मस्तिष्क में कौंधता है कि इस विशेष मन्दिर कला मन्दिर निर्माण के पीछे आखिर किस व्यक्ति की सोच रही होगी ? ये मन्दिर घने जँगल में क्यों निर्मित हुए ?
मेरे देखे यह तो निश्चित है कि खजुराहो के मन्दिरों को तराशने में, निपुण कलाधर की जीवन के प्रति पैनी दृष्टि ने इन भव्य मन्दिरों को अथक परिश्रम कर, निर्माण किया है। मुझे इन मूर्तियों की भाव भंगिमाओं एवम् सम्भोग के अन्तरंग भावों को देखकर लगता है कि किसी विदुषी का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसीलिए मानव मन की इतनी बारीकियों को पत्थर पर तराशा जा सका।
जब जब मैं इन मन्दिरों के चौतरफ़ा घूमकर मूर्तियों को निहारता हूँ तो लगता है कि ये मूर्तियाँ मुझे दर्पण दिखा रही हैं। एक भिज्ञ ऊर्जा वर्तुल बनकर ऊर्ध्व की ओर दौड़ने लगती है। यही ऊर्जा मूर्तियों के शान्त पत्थरों में भी है और यही ऊर्जा मेरी देह में भी है। मेरी देह और मूर्ती दोनों एक ही अस्तित्व की इकाई हैं। दो होकर भी एक हैं। कोई रिक्तता मुझे घेर लेती है। इसी शून्य का दायरा अपना अनन्त फैलाव बना लेता है। इस फैलाव की कोई परिधि नहीं है। अस्तित्व का यही सच्चा स्वरूप है। अस्तित्व प्रेम से ही बना है। वही उसका सूत्र है। प्रेम अस्तित्व का धागा है। अस्तित्व को प्रेम से ही जाना जा सकता है।
कहते हैं कि जब महात्मा गाँधी को खजुराहो के मन्दिरों के बारे में पता चला तो उन्होंने कहा कि इन मन्दिरों को कीचड़ से ढ़कवा दो। इस बात को सुनकर रविन्द्रनाथ टैगोर ने तुरन्त हस्तक्षेप करते हुए कहा कि ऐसा न करो। यह कला है। कला के छोर को पकड़ कर ही जीवन को समझा जा सकता है। कृपया कला को कीचड़ से न ढ़को। शायद इसी कारण इन मन्दिरों को कीचड़ से नहीं ढ़का गया।
खजुराहो जैसे मन्दिर धरती पर कहीं भी नहीं हैं। ये मन्दिर अनुपम हैं। किसी भी मन्दिर से इनकी तुलना नहीं की जा सकती है। खजुराहो में मंदिरों में हजारों हजारों सुंदर मूर्तियाँ हैं। अधिकांश नग्न हैं और सम्भोगरत हैं। बहुत ही लुभावनी हैं।
खजुराहो के मन्दिरों के विषय में एक बहुत बड़ा भ्रम भी है कि खजुराहो के मन्दिर केवल सम्भोग का ही संदेश देते हैं। प्रथमदृष्टया मन्दिरों की कामरत मूर्तियों को देखकर ऐसा लग तो सकता है। जबकि ऐसा कदापि, कदापि नहीं है। इन मन्दिरों के निर्माण का उद्देश्य कामुक बुद्धि या समझ तक सीमित नहीं है। इन कामरत मूर्तियों में जीवन दर्शन का एक गहन उपदेश है, एक सहज मार्गदर्शन है - कामुक डोर के सहारे समाधिस्थ होने की राह पकड़ने का।
जीवन का अपना धर्म है। उसे किसी लेबल की आवश्यकता नहीं है। चाहे जिस धर्म का मानने वाला पर्यटक यहाँ आये। जब दर्शक इन मूर्तियों के समक्ष खड़ा होता है तो गहन चैतन्य की प्रतिच्छाया अनवरत रुप से दर्शक को घेर लेती है। दर्शक जीवन में एक ठहराव का अनुभव करता है। आपका रौंया रौंया पुलकित हो उठता है। आपकी देह का कतरा कतरा आपसे बतियाता है। दर्शक जीवन की प्रतिध्वनि से रुबरु होता है। यही साक्षात है अस्तित्व का। दर्शक को लगता है मुझे जहाँ होना चाहिए वहाँ आ पहुँचा हूँ।
खजुराहो की कामरत प्रतिमाएँ जीवन के एक तथ्य को बहुत ही सहज ढ़ंग से रूपायित करती हैं कि मानव जीवन में काम बहुत ही शक्तिशाली ऊर्जा है। इस शक्तिशाली ऊर्जा का दमन या नियन्त्रण कोई उपाय नहीं है अपितु जीवन व समाज के सामने प्रश्न यह है कि इस वेग को साधा कैसे जाये ?
व्यक्ति की वय के अनुसार हारमोन्स अपना काम करेंगे ही। प्रकृति अपना निर्माण करेगी ही। देह के माध्यम से प्रकृति स्वयं को अभिव्यक्त करेगी ही। स्वस्थ शरीर में हार्माेन्स जोर मारेंगे और मन को इस ऊर्जा की अभिव्यक्ति की राह तलाश करने का प्रयास करेंगे। प्रश्न यह है कि क्या आप इस ऊर्जा के साक्षी बन सकते हैं, इस ऊर्जा के साक्षी बन वाहक बन सकते हैं ? क्या आप इस ऊर्जा को पहचान सकते हैं ? समझ सकते हैं ? इस प्रक्रिया में यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य है जिसका उत्तर आपके जीवन की सुगम्य बनाने में सहायक हो सकता है।
स्त्री व पुरुष देह की प्रकृति काम के तल पर बहुत कुछ भिन्नता लिए हुए है। पुरुष काम के तल पर संसृति के सृजन अपने शुक्राणुओं को रोपित करना चाहता है और यह प्रक्रिया पुरुष के जीवन में एक रिक्तता लिए हुए है। यही कारण है कि जब पुरुष अपनी कामवासना को नहीं सहेज पाता तो वह मानसिक और शारीरिक रूप से कुंठित और बीमार होने लगता है और यही सीढ़ी आगे चलकर अपराधों को जन्म देती है। हाँ, यह ऊर्जा चूँकि स्त्री और पुरुष दोनों ही देह में समानान्तर व पूरक रूप में प्रवाहित होती रहती है। अतः आत्मीय प्रेम सम्बन्धों के माध्यम से दर्पित कर, इसे सरल और सहज रूप से समझा और साक्षीभाव से इसकी पूर्णता में जीया जा सकता है।
ऐसे भी लोग हैं जो विवाह नहीं कर पाते या अपनी काम ऊर्जा को आत्मीय प्रेम सम्बन्ध के माध्यम से अभिव्यक्ति नहीं दे पाते। ऐसे व्यक्तियों से बात करने पर पता चलता है कि बहुत से ऐसे व्यक्ति जब स्त्रियों के मध्य होते हैं तो स्त्रियों का स्नेहपूर्वक प्रेमपूर्ण व्यवहार उनकी काम ऊर्जा को समझने व उसके साक्षी होने का सर्वाधिक सुअवसर होता है। ऐसी स्थिति भी पुरुष को स्वयं को समझने में बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है। बशर्ते कि व्यक्ति स्वयं एवम् परिवेश के प्रति सजग एवम् ईमानदार हो।
मूलतः परिवार में माँ, बहिन व बेटियों का प्यार पुरूष के व्यक्तित्व को सँवारने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। यह सब बहुत सहज ही घटता है। उनका पावन स्नेह पुरुष को उसके मन, उसकी काम ऊर्जा को समझने, संचरित करने व संतुलित करने में सहयोगी बन पड़ता है। पुरूष जीवन में समझ का एक संतुलन सधने लगता है।
सामान्यतः स्त्रियाँ शारीरिक सम्बन्ध सन्तानोत्पत्ति की चाहत, प्रियतम का प्रेम पाने, अपने प्रियतम की खुशी व कभी कभी अपने प्रियतम से पहुँच बनाने, उनका सहयोग पाने, उनकी मानसिक उपस्थिति को वर्तमान में सहेजने का कारक भी बनती है। वैसे भी स्त्रियों को मित्रता, प्रेम और आत्मीय सम्बन्ध बहुत पसन्द हैं। आमतौर पर देखने में आता है कि महिलाओं का मन आत्मीयता, देखभाल, लाड चाव, दुलार व सुरक्षा भाव की ओर उन्मुख होता है। कामवासना प्राथमिक नहीं होती। महिलाओं का जीवन के प्रति यही दृष्टिकोण भावी सम्बन्धों का आधार होता है।
एक वयस्क स्त्री पुरुष का मिलन कामोर्जा को समझने में भरपूर सहयोगी हो सकता है। विवाहसूत्र में बँधना भी एक रास्ता है। शर्त एक ही है कि आप एक दूसरे को समर्पित हों तभी प्रेम की गहराईयों को जाना जा सकेगा। काम ऊर्जा प्रेम की राह है। एक राजपथ है। जब आप पूर्ण समर्पण के साथ काम के राजपथ पर चलेंगे तो पूरा अस्तित्व आपके साथ होगा। जब आप इस राह पर होंगे तो आपके गहरे में रुपान्तरण घटेगा। आपकी दृष्टि बदलेगी। आपके जीवन जीने का तरीका भी बदलेगा। गहन प्रेम की अवस्था में काम ऊर्जा, एक स्वयं साध्य, साधन बन जायेगी। फिर इस ऊर्जा को आप संगीत में लगायें या नृत्य में। इसे चित्रकला में लगायें या बागवानी में कोई फर्क नहीं पड़ता। रुपान्तरण की यह घटना आपको गहरे में बदल देगी। आपका मन काम की पकड़ से मुक्त हो सकेेगा।
काम दमित न हो। काम मन को विकृत न करे। इस हेतु काम की ऊर्जा के प्रति सजग होना ही एकमात्र महत्तर कदम है। शारीरिक श्रम, खेलना, तैरना, साइकिल चलाना, नृत्य करना ये सब कार्य आपकी काम ऊर्जा को सर्जनात्मक दिशा दे सकते हैं। ध्यान की विभिन्न विधियाँ भी इसी क्रम में देह ऊर्जा को पहचानने व साक्षी होने में सदैव सहायक बनी रहती हैं।
इस बात का ध्यान रहे की काम ऊर्जा का दमन मन को विकृत बना देता है। दमित काम अपने विसर्जन का मार्ग ढ़ूढ़ता है। कालान्तर में यही दमित वासना व्यक्ति को आपराधिक प्रवृत्तियों में धकेल देती है। क्रोध, हिंसा, बलात्कार आदि दमित काम के विसर्जन का परिणाम हो सकते हैं। काम ऊर्जा को समझ व राह देना स्त्रियों के लिए सहज है। वे जब भी इसका भान करती हैं तो स्वयं को किसी छोटे मोटे कार्य की ओर मुड़ जाती हैं। जब ऐसा नहीं घटता तो विरह के अँगारों को भी झेलने का दम रखती हैं। मेरे अनुभव में, पुरुषों की स्थिति काम ऊर्जा को राह देने में थोड़ी मुश्किल की सी है। मानसिक तौर पर, पुरुष शारीरिक बल के उपरांत भी, कमजोर है। शायद यही तथ्य पुरुष ऊर्जा को क्रोध, हिंसा में धकेल देता है। पौरूष से जीवन का राजपथ छूट जाता है।
खजुराहो के मन्दिर यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर हैं। ये मन्दिर बलुआ पत्थर से बने हैं। यह भूरे रंग का बलुआ पत्थर मुलायम होता है। इसे तरासना कठोर पत्थर के मुकाबले आसान है। खजुराहो की इन मूर्तियों को तरासने के बाद मोटे चमड़े से घिसाव किया गया है। मूर्ती के एक एक भाव को कड़ी मेहनत से पत्थर पर उतारने व उसकी घिसाई करने में उसे कलाधर ने अपनी जी जान से सींचा है। इसीलिए प्रत्येक मूर्ती जीवन्त है। जीवन की आभा लिए हुए है, मनमोहक है।
जीवन की ऊर्जा फूल की सुगन्ध सी है। उसे कोई छू नहीं सकता। हाँ, उसकी अनुभूति हो सकती है। मन के देखे यही ऊर्जा भावदशा है। जो साक्षीभाव से समझने योग्य है। स्वयं को पढ़ने का यही एक तरीका है। इसके साक्षी हो जाओ। यह भावदशा तुम्हारी ही बनायी है। तुम ही इसके साक्षी हो सकते हो। तुम ही इसके मालिक हो। रूप और आकार अस्तित्व की अभिव्यक्ति हैं। हम सब इसी अभिव्यक्ति की इकाई हैं। इस अभिव्यक्ति के प्रति साक्षी भाव से तुम अस्तित्व के प्रति खुल जाओगे। यह स्वीकारोक्ति तुम्हारे लिए सुख के सारे दरवाजे खोल देगी। महादेव पार्वती का आलिंगनबद्ध समाधिस्थ स्वरूप भी यही साक्षी भाव है। इस समाधिस्थ स्वरूप में कहीं द्व नहीं है। इस स्वरूप में द्व को तो मिटना ही पड़ेगा। यहाँ सब एकाकार है। अस्तित्व के साथ है। एक है।
खजुराहो एक साफ सुथरा छोटा सा स्थान है। जिसकी आबादी पुरानी बस्ती, सेवाग्राम, विद्याधर कालोनी, मंजूर नगर में बसी हुई है। साफ सुथरा होने के साथ साथ यहाँ शान्ति है तथा खजुराहो का जीवन मूलतया पर्यटन पर निर्भर है। खजुराहो के मन्दिरों का निर्माण चँदेल वँश के द्वारा 985 ई.स. से 1050 ई. स. में करवाया गया था। ऐतिहासिक तथ्यों की बात माने तो बारहवीं सदी तक खजुराहो में 85 मन्दिर थे। जो 20 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए थे।
आक्रमणकारियों के कारण खजुराहो का आकार सिकुड़ गया। 1182 में शाकम्भरी के चाहमान और 1202 में कुतुबुद्दीन ऐबक के आक्रमणों के कारण चँदेल खजुराहो को छोड़कर महोबा, अजयगढ़ और कालिंजर की ओर कूँच कर गए। इसके बाद 1485 में सिकन्दर लोदी ने खजुराहो पर आक्रमण कर कई मन्दिरों को तहस नहस कर दिया। सोलहवीं शती के आते आते इन मन्दिरों को घने जँगल ने ढ़क लिया और खजुराहो के ये मन्दिर लोगों की नजरों से ओझल हो गये। आखिर सी.जे. फ्रेन्कलिन ने 1819 में सेना के सर्वेक्षण के दौरान खजुराहो को घने जँगलों में फिर से ढ़ूँढ़ निकाला। तत्पश्चात ब्रिटिश सेना के कप्तान टी.एस. बर्ट ने 1838 में खजुराहो पहुँचे। 1852 से 1855 के बीच खजुराहो आने वाली मुख्य हस्तियों में से एक थे एल्गजेंडर कन्निघंम।
इन मन्दिरों का निर्माण चँदेल वंश के उदीयमान होते ही प्रारम्भ हो गया था। यह निर्माण कार्य अनवरत रुप से चलता रहा जब तक बुन्देलखण्ड अस्तित्व में रहा। अधिकतर मन्दिरों का निर्माण चँदेल राजा यशोवर्मन व राजा धँग के समय में हुआ। लक्ष्मण मन्दिर राजा यशोवर्मन के समय का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। विश्वनाथ मन्दिर राजा धँग के शासनकाल की कहानी कहता है वहीं कन्दारिया महादेव राजा विद्याधर के शासनकाल में बना। यह मन्दिर सबसे बड़ा मन्दिर है और सबसे लोकप्रिय भी मन्दिर है। मतंगेश्वर मन्दिर में हर सुबह और शाम को आरती होती है।
यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि इनमें से आज केवल पच्चीस मन्दिर ही शेष हैं जो छः वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं। ये सभी मन्दिर अपने निर्माता व उनके आराध्य की कहानी भी कहते हैं। इन मन्दिरों की बाहरी दीवारों में मूर्तियाँ प्रचुर मात्रा में हैं। इन मूर्तियों को बहुत बारीकी से तराशा गया है। ये मूर्तियाँ प्रतीकात्मक दृष्टि से प्राचीन भारतीय कला की अभिव्यक्ति का अनुपम उदाहरण हैं। खजुराहो शिव शक्ति का एक धाम है। केदारनाथ, काशी और गया धाम की पँक्ति में एक शिरोमणि धाम। खजुराहो का उदय और यहाँ की मूर्तीकला अध्ययन का गहन विषय है। इस पर अभी बहुत अध्ययन होना शेष है।
शिवशक्ति का स्थान होने के नाते खजुराहो हनीमून के लिए श्रेष्ठ स्थान है। भारतीय परम्परा के अनुसार प्रतिवर्ष लाखों युगल परिणय सूत्र में बँधते हैं। इन नव विवाहित युगलों के लिए नये जीवन की शुरुआत में खजुराहो की हनीमून यात्रा नवविवाहित जीवन का तीर्थ सिद्ध हो सकती है। इस यात्रा को जीवन का तीर्थ बनाने के लिए भारतीय ट्रेवल एजेंटस को, खजुराहो की होटल एसोसिएशन के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है। ये ट्रेवल एजेन्टस चाहे महानगरों में हों या फिर छोटे शहरों में। नवविवाहित युगलों को खजुराहो से साक्षात कराने यानी व्यक्ति को स्वयं से साक्षात कराने व पर्यटन को प्रोत्साहित करने की भी अपार सम्भावनाएँ लिए हुए है।
बुन्देलखण्ड के इतिहास, कला व निर्माण को देखें तो इस क्षेत्र में पर्यटन की अपार सम्भावनाएँ हैं। विशेषतः खजुराहो जैसे स्थान के लिए दरवाजे से दरवाजे तक की सेवा नवविवाहित जोड़ों को दी जानी चाहिए। आज हर मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार इस यात्रा खर्च को वहन करने में सक्षम भी है। इससे बुन्देलखण्ड में पर्यटन को बहुत बढावा मिल सकता है।
भारत सरकार व मध्यप्रदेश की सरकार के विभिन्न संस्थानों को आपस में तालमेल कर गर्मियों में मन्दिरों के खुलने का समय मध्य रात्रि तक किया जाने से ग्रीष्म ऋतु में भी नव विवाहित युगलों को आकर्षित कर सकने में सक्षम है। सुरक्षा की दृष्टि से मन्दिरों में रात्रिकालीन प्रवेश केवल पँजीकृत नवविवाहित युगल को ही दिया जाय। साथ ही प्रवेशार्थियों की पँजीकरण प्रक्रिया अग्रिम ऑनलाइन हो ताकि सुरक्षा व्यवस्था करना सहज हो सके।
खजुराहो की पहली यात्रा से लेकर अब तक मैं अनेक बार खजुराहो गया हूँ। अब भी जाता हूँ। यहाँ हर दिन एक नया दिन है। मन्दिरों के प्राँगण में एक शान्त, नूतन, निर्जन, नितान्त, पत्थरों में गढ़ा गया उत्सव अपनी कथा लिए खड़ा है। इस सबको बँद आँखों से भी आत्मसात किया जा सकता है। मैंनें भी किया है और आप भी कर सकते हैं। आगरा में पत्थर का ताजमहल है और खजुराहो में जीवन का राजमहल है। जिसमें जीवन का राज उत्कीर्ण है। मानव का पूरा मनोविज्ञान है। खजुराहो काम ऊर्जा के राजपथ का द्वार है। बस देखने भर की क्षमता चाहिए।