भारत विविधताओं का देश है। यहाँ भाषाएँ बदलती हैं, पहनावे बदलते हैं, भोजन की शैली बदलती है, परंतु जो चीज़ हर दिशा में समान है, वह है त्योहारों की सामाजिक चेतना। भारतीय समाज में त्योहार केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि वे सामाजिक एकता, सांस्कृतिक निरंतरता और सामूहिक सहभागिता के सबसे बड़े प्रतीक हैं। समाजशास्त्र की दृष्टि से त्योहार भारतीय जीवन के “सामाजिक संरचना” का अभिन्न अंग हैं।
1. त्योहार : समाज का जीवंत ताना-बाना
समाजशास्त्र में एमिल दुर्खाइम ने कहा था कि “समाज स्वयं को त्योहारों के माध्यम से पुनः अनुभव करता है।” भारतीय त्योहार भी यही करते हैं। वे समाज को एकजुटता, सांस्कृतिक पहचान और नैतिक चेतना का अनुभव कराते हैं। दीवाली केवल दीप जलाने का पर्व नहीं, बल्कि यह अंधकार पर प्रकाश, असत्य पर सत्य और लोभ पर संयम की सामाजिक शिक्षा देता है। होली केवल रंगों का उत्सव नहीं, बल्कि यह वर्ग, जाति और स्थिति के भेदों को भुलाकर समानता की सामाजिक भावना का विस्तार करती है।
2. सामाजिक एकता और सहभागिता
भारत के गाँवों और कस्बों में त्योहारों का स्वरूप सामूहिक होता है।
नवरात्रि में पूरा समुदाय एक साथ गरबा नृत्य करता है, दशहरे पर रामलीला समिति बनती है, ईद पर सेवई बाँटी जाती है, क्रिसमस पर समाज के सभी लोग चर्च में सजावट में हाथ बँटाते हैं। इन त्योहारों में न कोई अमीर होता है, न गरीब, सभी “साझा संस्कृति” के हिस्सेदार बनते हैं। समाजशास्त्रीय रूप से यह “सामाजिक एकजुटता” और “सामूहिक चेतना” का उत्कृष्ट उदाहरण है।
3. आर्थिक और वर्गीय दृष्टि
त्योहारों का एक गहरा आर्थिक समाजशास्त्र भी है। त्योहारों के समय व्यापार बढ़ता है, स्थानीय कलाकारों और कारीगरों को काम मिलता है। दीपावली पर दीये बनाने वाले, रक्षाबंधन पर राखी तैयार करने वाले, दुर्गापूजा में मूर्तिकार, होली में रंग बनाने वाले, सभी के जीवन में त्योहार आर्थिक सशक्तिकरण का अवसर लाते हैं। समाजशास्त्रीय दृष्टि से यह त्योहार स्थानीय अर्थव्यवस्था को गतिशील रखते हैं और वर्गों के बीच आर्थिक संतुलन बनाने में मदद करते हैं।
4. परंपरा, परिवर्तन और आधुनिकता
आज के शहरी समाज में त्योहारों का स्वरूप बदल रहा है। पहले घर-घर पर सांझे दीये जलते थे, अब इलेक्ट्रिक लाइटें लगी हैं। पहले त्योहारों में भावनात्मक श्रम अधिक था, अब सुविधा और उपभोगवाद अधिक दिखता है। समाजशास्त्र की भाषा में कहा जाए तो “त्योहार अब ‘सामाजिक क्रिया’ से ‘सांस्कृतिक उपभोग’ में बदल रहे हैं।” फिर भी, यह परिवर्तन समाज की गतिशीलता को दर्शाता है। परंपरा का अर्थ स्थिरता नहीं, बल्कि निरंतर रूपांतरण है। आज भी लोग एक-दूसरे को दीपावली, होली या ईद की शुभकामनाएँ देते हैं, यह बताता है कि सामाजिक बंधन अभी जीवित हैं, भले ही उनके रूप आधुनिक हो गए हों।
5. सामाजिक नियंत्रण और नैतिक शिक्षा
त्योहार समाज में नैतिक अनुशासन बनाए रखने का माध्यम भी हैं।
हर त्योहार के पीछे एक संदेश छिपा है। दीपावली सिखाती है कि मेहनत और धर्म से अर्जित धन ही “लक्ष्मी” है। रक्षाबंधन में नारी की रक्षा और सम्मान का संस्कार है। होली बताती है कि अहंकार का अंत अवश्य होता है। ईद में साझा भोजन और समानता की शिक्षा है। क्रिसमस में प्रेम और सेवा भाव की भावना है। समाजशास्त्री मैक्स वेबर के अनुसार, ऐसे मूल्य समाज को “नैतिक दिशा” देते हैं और सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखते हैं।
6. जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय विविधता
भारतीय त्योहारों का एक अद्भुत समाजशास्त्रीय पहलू यह है कि वे बहुलता का उत्सव हैं। उत्तर में होली, दक्षिण में पोंगल, पूर्व में बिहू, पश्चिम में गणेशोत्सव, सब अलग-अलग हैं, परंतु सबमें एक समान सामाजिक तत्त्व है-“समूह में आनंद की अनुभूति।” यह विविधता भारतीय समाज को सांस्कृतिक सह-अस्तित्व का उदाहरण बनाती है। त्योहारों के अवसर पर अलग-अलग धर्मों और जातियों के लोग एक-दूसरे के यहाँ पहुँचते हैं, यह “सामाजिक समरसता की परंपरा को जीवित रखता है।
7. वैश्वीकरण और मीडिया का प्रभाव
आज के युग में त्योहारों का मीडिया समाजशास्त्र भी विकसित हुआ है। टेलीविज़न और सोशल मीडिया ने त्योहारों को राष्ट्रीय और वैश्विक मंच पर पहुँचा दिया है। अब दीवाली केवल भारत की नहीं, बल्कि लंदन, दुबई, न्यूयॉर्क तक मनाई जाती है। हालाँकि इसके साथ ही त्योहारों में ब्रांड संस्कृति और विज्ञापन आधारित उपभोग भी बढ़ा है। यह समाजशास्त्रीय दृष्टि से एक संस्कृति का वाणिज्यिकरण है, जो परंपरा को प्रभावित करता है।
8. समाज का उत्सव धर्म
भारतीय समाजशास्त्र में त्योहारों को केवल धार्मिक अवसर नहीं माना जा सकता। वे सामाजिक ऊर्जा के पुनर्संचार का माध्यम हैं। हर त्योहार समाज को एक नई चेतना देता है, लोगों को जोड़ता है, सह-अस्तित्व सिखाता है और हमें यह याद दिलाता है कि “मनुष्य अकेला नहीं, बल्कि समुदाय का हिस्सा है।” त्योहारों का यह समाजशास्त्र भारत की पहचान है, जहाँ विविधता में एकता, साझा आनंद और मानवीय भावनाओं की गहराई ही असली संस्कृति है।
लेखक
डॉ. चेतन आनंद
(कवि-पत्रकार)