वामा संस्कृति एवं साहित्य अकादमी, दिल्ली इकाई द्वारा 3 अक्तूबर 2025 को संध्या 5 बजे वरिष्ठ साहित्यकार संतोष श्रीवास्तव द्वारा रचित बहुचर्चित उपन्यास 'उर्वशी पुरुरवा' पर एक सशक्त ऑनलाइन साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन किया गया। यह आयोजन साहित्य, संस्कृति और स्त्री-विमर्श के समकालीन परिप्रेक्ष्य में पौराणिक पुनर्पाठ की महत्ता को रेखांकित करता है।
परिचर्चा का संयोजन एवं संचालन वामा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, दिल्ली इकाई की अध्यक्ष शकुंतला मित्तल द्वारा अत्यंत कुशलता और गरिमा के साथ किया गया। उन्होंने सभी अतिथियों का हार्दिक स्वागत करते हुए परिचर्चा को एक उद्देश्यपूर्ण दिशा प्रदान करते हुए आरंभ में कार्यक्रम की मूल धुरी उपन्यास की लेखिका, संतोष श्रीवास्तव, से उपन्यास और उसके शिल्प पर कुछ प्रश्न पूछे।
प्रत्युत्तर में उपन्यासकार संतोष श्रीवास्तव ने रचना की प्रक्रिया, प्रेरणा और अपने दृष्टिकोण को साझा किया। उन्होंने कहा कि 'उर्वशी केवल मिथक नहीं, वह हर युग की स्त्री का प्रतीक है—जिसे उन्होंने 3 वर्षों के शोध के पश्चात लिखा। इस कथानक पर विपुल साहित्य लिखा जा चुका है तो मेरे सामने कुछ नया लिखने की चुनौती भी थी। लेखिका ने यह भी बताया कि यह उपन्यास उनके लिए एक अंतर्यात्रा थी, जिसमें उन्होंने प्रेम, त्याग, स्वाभिमान और स्त्री-स्वत्व को खोजा।
इस परिचर्चा की अध्यक्षता की वामा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के संस्थापक डॉ. संजीव कुमार जी ने। डॉ संजीव कुमार साहित्य और चिंतन के गंभीर अध्येता हैं तथा उनका नाम इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में 'सर्वाधिक पुस्तकें लिखने वाले लेखक' के रूप में दर्ज है। डॉ. कुमार ने अपने उद्घाटन वक्तव्य में कहा कि 'उर्वशी और पुरुरवा की कथा को आधुनिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना केवल साहित्यिक चुनौती नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का कार्य है। इस महती कार्य को सशक्त रूप से उपन्यास के रूप में प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने लेखिका को बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं दीं। 'उन्होंने वामा अकादमी की कार्य प्रणाली और उद्देश्य से भी सबको अवगत करवाया।
मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेश्वर वशिष्ठ ने उपन्यास की कथावस्तु, संवाद-संरचना एवं प्रतीकों के माध्यम से कृति की सराहना की और अपनी कुछ जिज्ञासा और प्रश्न भी रखे, जिनके संतोषजनक उत्तर देते हुए लेखिका संतोष श्रीवास्तव ने कहा कि 'यह कृति स्त्री के आत्मसंघर्ष और सांस्कृतिक विरासत के बीच संतुलन का सशक्त उदाहरण है। मैंने इसकी पौराणिकता में तार्किकता का समावेश कर उसे आज के संदर्भ में प्रामाणिक और विश्वसनीय बनाने का प्रयास किया है।
सारस्वत अतिथि विश्व रिकॉर्ड धारक, वरिष्ठ पत्रकार, विचारक, और समीक्षक डॉ. शंभू सिंह पंवार ने उपन्यास को नारी मन की अतल गहराइयों और पुरुष मानसिकता के द्वंद्व का प्रभावशाली चित्रण बताया। उन्होंने कहा कि यह रचना स्त्री-विमर्श की पुनर्परिभाषा है, जिसमें लेखिका ने पौराणिक पात्रों को आज की चेतना से जोड़ा है।
विशिष्ट अतिथि के रूप में दो वरिष्ठ साहित्यकारों की गरिमामयी उपस्थिति रही।
डॉ. नीलिमा रंजन ,वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक ने इस उपन्यास को
सनातन प्रेमानुरागी चरित्रों की साहित्यिक निष्पत्ति बताते हुए कहा कि संतोष श्रीवास्तव जी का सद्य- प्रकाशित उपन्यास इंद्र सभा की नर्तकी उर्वशी और भूलोक में प्रतिष्ठानपुर के चंद्रवंशी राजा की प्रेमकथा है। इसमें प्रेम की अतीन्द्रियता, चेतन हृदय की जागृति व उर्वशी के लोकातीत अस्तित्व को दु:सह आसक्ति व प्रणय के बंधन के समक्ष समर्पित कर देना दर्शाया गया है। यह विपरीत संस्कृतियों का एक दूसरे के प्रति समर्पण है।
जया केतकी , वरिष्ठ साहित्यकार एवं अक्षरा पत्रिका की संपादक, ने लेखिका के शिल्प और भाषा की सादगी तथा गहराई को रेखांकित किया।उनके अनुसार संतोष श्रीवास्तव केवल लिखती नहीं हैं, वे लंबे समय तक पढ़ती और शोध करती हैं। वे अपनी बात ऐसे कहती हैं कि उन्होंने भारतीय संस्कृति के स्वर्णिम युग को इस पुस्तक लेखन के माध्यम से जिया है। परिदृश्य यूँ रचे गए हैं मानो वे उसकी साक्षी हों।
यह परिचर्चा न केवल एक साहित्यिक कृति पर विचार-विमर्श था, बल्कि समकालीन सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक पुनर्पाठ का भी सशक्त मंच बनी। वक्ताओं ने उपन्यास 'उर्वशी पुरुरवा' को एक ऐसी रचना बताया जो पौराणिक कथा को आधुनिक दृष्टिकोण, स्त्री-सशक्तिकरण और मानसिक जटिलताओं के साथ प्रस्तुत करती है।
कार्यक्रम में देशभर से साहित्यप्रेमियों, लेखकों, ने भाग लिया तथा डा. प्रमिला वर्मा डॉ.वसुधा सहस्त्रबुद्धि , अनीता रश्मि, ओमप्रकाश प्रजापति
ने इस विमर्श को अत्यंत विचारोत्तेजक और समृद्ध बनाने में सहभागिता की।
अंत में शकुंतला मित्तल ने सबका आभार व्यक्त करते हुए परिचर्चा के समापन की घोषणा की।
शकुंतला मित्तल
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय ओमप्रकाश प्रजापति जी
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