अपनी सकारात्मक ऊर्जा का सभी के कल्याण के लिए सदुपयोग करो ताकि ईश्वर द्वारा अति कृपा पूर्वक विशेष उद्देश्य से दिया गया मनुष्य शरीर के रूप में यह जीवन सार्थक हो सके । इस शरीर के सभी अंगों का बहुत पवित्र और व्यापक महत्व है। हाथ छीनाझपटी, मारधाड , तोडफोड के लिए नहीं, श्रद्धापूर्वक नमन, प्रार्थना, वन्दना के लिए ,दान के लिए, अर्पण के लिए हैं। पैर सन्मार्ग पर चलने के लिए हैं । नेत्र अच्छा देखने के लिए हैं । इस प्रकृति में सर्वत्र सुन्दरता, सुषमा, सात्विकता व्याप्त है,जिनको देखने के लिए ये नेत्र मि ले हैं, बुराई, कमी, मलिनता, खोजने और देखने के लिए नहीं। संसार में अनेक महान सन्त विचारक ,ऋषि-महर्षि, मनीषी,लेखक हमको विपुल ज्ञान-सम्पदा दे गये हैं, ये नेत्र उनको पढ़कर ज्ञान- अर्जन के लिए मिले हैं । ये कान अच्छी ध्वनि सुनने के लिए हैं, सद्विचार ,सत्संग, श्रेष्ठ-मधुर वाणी सुनने के लिए हैं,
चुगली, बुराई, पर निन्दा झूठ-फरेब, प्रपंच फैलाने के लिए नहीं मिले हैं। वाणी का उपहार इस सृष्टि में केवल मनुष्य को मिला है। यह जीवन की सबसे बडी उपलब्धि है जिसका प्रयोजन भी बहुत बड़ा है। इस वाणी के कारण ही अनेक मनुष्य महान हो गये। इस वाणी के सदुपयोग के लिए ईश्वर भी मनुष्य रूप में अवतरित होते हैं । यह वाणी ही है, जो ध्वनि रूप में सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हो जाती है । इसीलिए अक्षर को ब्रह्म कहा जाता है । यदि एक भी शब्द अशुद्ध, असत्य , अभद्र लिख दिया जाता है या बोल दिया जाता है, तो वह पूरे आकाश में व्याप्त हो जाता हैऔर सबसे विशेष तथ्य यह कि वह कभी डिलीट नहीं होता, नष्ट नहीं होता जन्म-जन्मांतर तक उस व्यक्ति के दुखद अस्तित्व का कारण बना रहता है । कोई एक व्यक्ति जब अन्य व्यक्ति को अपशब्द कहता है , तो वह स्वयं के जन्म-जन्मान्तर को दुष्प्रभावों से ग्रस्त कर देता है क्योंकि ध्वनि की एक अन्य विशेषता है ,प्रतिध्वनि । वह सब कुछ लौटकर उसी के पास आ जाता है ।सृष्टि में तीन बातें अनिवार्य रूप में हैं--
प्रतिक्रिया ,प्रतिध्वनि और प्रतिछाया, इसलिए अपने शब्दों के सम्बन्ध में बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है । ईश्वर मुकुट लगाये मूर्ति बनकर बैठा रहे और मनुष्य पूजा-पाठ कर ले और फिर कुछ भी करने को स्वतन्त्र हो जाये, ऐसा नहीं है। सृष्टि की पूरी व्यवस्था नियमित, व्यवस्थित, समरस, सुसंगठित सुसंचालित परस्पर सम्बद्ध है । एक सुई की नोक के बराबर भी यदि कोई ग्रह अपना स्थान छोड़ दे, तो उथल-पुथल मच जायेगी। सभी ग्रह नक्षत्र अपनी-अपनी कक्षा में अवस्थित हैं और परिभ्रमण कर रहे हैं। मकड़ी के जाले की तरह पूरा विस्तार है इस सृष्टि का । यदि एक छोर भी हिलेगा तो पूरा जाला हिल जायेगा । किसी एक व्यक्ति के कुविचार ,अपशब्द की ध्वनि केवल उसी के समीप नहीं ,पूरे ब्रह्माण्ड में फैलकर , सभी को प्रभावित कर विचलित कर देने में समर्थ होती है।
ध्वनि तो सर्वव्यापक होती है, क्रिया की प्रतिक्रिया भी कई गुना अधिक होती है। कोई व्यक्ति यदि किसी का अहित करता है ,तो कभी नकभी उससे बहुत अधिक उसका स्वयं का अहित होना ही है । यह जीवन केवल अन्य का स्वत्व छीनने, अपने सुखों के लिए , अनुचित संग्रह करने, भोग-विलास के लिए नहीं मिला है । सब कुछ इसी प्रकृति से लेने वाला मनुष्य जब उसका ही छीनने पर उतारू हो जाता है, तब प्रकृति स्वत:उसका सबकुछ छीन लेती हैऔर वह जैसे खाली हाथ आया था, वैसे ही चला जाता है , लेकिन अनेक प्रकार के पापों का बोझ अपने साथ संस्कार रूप में लिए चला जाता है , जिनसे उसका छुटकारा अनेकानेक जन्म में भी सम्भव नहीं होता । ऐसे व्यक्ति ईश्वर को नहीं मानते ।वे नहीं जानते कि ईश्वर मुकुट लगाये मन्दिर में ही मूर्ति बना नहीं बैठा है,वह तो सर्वव्यापक है,वह तो इस प्रकृति में ही अपने विराट स्वरूप में विद्यमान है ,आकाश ,धरती , वायु, अग्नि जल - इन पाँच का समुच्चय ही तो उसका कलेवर है, वह ब्रह्मांड रूप है तो यह मनुष्य उसी का लघु स्वरूप पिण्ड रूप में है ।वह समष्टि है, सभी का समुच्चय है, तो मनुष्य व्यष्टि है। उसका ही अंश है । चेतना के उच्च स्तर पर पहुँचकर मनुष्य में भी ईश्वरत्व सम्भव है । अनेक सन्तों ने ईश्वरत्व का साक्षात्कार किया और मनुष्य योनि को धन्य कर दिया । इसके विपरीत अनेक मनुष्यों ने मनुष्यता को भी छोड़कर राक्षसी रूप लेकर अपना और सभी का अहित किया । प्रवृति और चेतना की दिशा बदल जाने से कोई सन्त भी बन सकता है और पापी भी बन सकता है, यह विवेक भी मनुष्य को सहज ही प्राप्त है। निष्कर्ष रूप में ,केवल एक बात कहनी है कि सृष्टि की सबसे प्रभावी शक्ति ध्वनि है । संसार के अधिकांश झगड़े और युद्ध वाणी के दुरुपयोग से ही हुए हैं और हो रहे हैं । इसके प्रति इसलिए भी सभी को सचेष्ट रहना चाहिए क्योंकि जब अपशब्द बोला जाता है तब वह आकाशरूपी ईश्वर को सीधे सीधे चोट पहुँचाता है। हम सभी शून्य की तरह हैं , अच्छे विचारों, अच्छे व्यक्तियों, अच्छे कार्यों से जुड़ते जायेंगे , तो अगणित रूप में हमारा और संसार का सर्वतोमुखी कल्याण हो सकता है। ईश्वर अच्छाई को प्रसारित करता है। सभी दैवीय शक्तियाँ सत्कार्य की सहायक होती हैं ।पापी क्षणिक लाभ भले ही प्राप्त कर ले, उसका विनाश अवश्यंभावी है । अच्छे व्यक्ति का कल्याण भी सुनिश्चित
है । ईश्वरीय व्यवस्था बहुत सुनियोजित होती है, उसमें अविश्वास नहीं करना चाहिए ।
मिथिलेश दीक्षित