मोहन मंगलम
भारतीय संस्कृति में संयम को अत्यधिक महत्व दिया गया है। सामान्यतः संयम को ऋषि-मुनियों की साधना और तपस्या से जोड़ा जाता है। ऋषि-मुनियों की साधना और तपस्या को संयम का उत्कर्ष कहा जा सकता है। संयम संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है श्निग्रहश् या श्नियंत्रणश् यानी अपनी इच्छाओं, भावनाओं और इंद्रियों को संयत रूप से नियंत्रित करना, ताकि हम अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक हो सकें। मानव जीवन में सफलता और सुख की प्राप्ति के लिए संयम अत्यंत महत्वपूर्ण है।
संयम अध्यात्म की पहली और अंतिम सीढ़ी है। अब प्रश्न उठता है कि जब संयम की इतनी अधिक महिमा है तो यह हमारे जीवन में क्यों नहीं आ पाता है? दरअसल आत्मनियंत्रण और विवेक के अभाव में ही व्यक्ति कमजोर पड़ जाता है और संयम के पथ से भटक जाता है। संयम, एक शक्ति है जो हमें अपनी इच्छाओं, विचारों और क्रियाओं पर नियंत्रण बनाए रखने में मदद करती है। यह एक महत्वपूर्ण गुण है जो हमें जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता और शांति की प्राप्ति में मदद करता है। संयम का पालन करने से हमारा जीवन समृद्धि और सुख से परिपूर्ण बन सकता है। कर्मठ, दृढ़ संकल्प वाला और विवेकशील व्यक्ति कभी असंयमी नहीं बनता। तभी तो इस संसार में जहां कहीं भी महान कार्यों को संपादित करने वाले लोग हुए हैं, उन्होंने संयम के पथ पर चलकर ही उपलब्धियां हासिल की हैं।
महर्षि पतंजलि कहते हैं, ध्यान, धारणा और समाधि के एकीकरण से संयम की अवस्था निर्मित होती है। उन्होंने संयम के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा है कि इससे प्रज्ञा रूपी आलोक का उद्भव होता है। संस्कृत साहित्य में मन के लिए कहा गया है, “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।” मन बंधन का कारण भी बनता है और मोक्ष का कारण भी बनता है। जो मन विषयों में आसक्त रहता है, वह बंधन की ओर ले जाता है और जो मन विषयासक्ति से मुक्त रहता है, वह मुक्ति की ओर ले जाने वाला होता है। आसक्ति से असंयम का पोषण होता है तो अनासक्ति से संयम की साधना होती है। एक साधक के सामने संयम ही मुख्य तत्व होता है। उसका खाना भी संयम युक्त हो, उसका चलना भी संयम युक्त हो, उसका बोलना, देखना आदि हर क्रियाकलाप संयम युक्त हो।
संयम शब्द सुनते ही यह भय सताने लगता है कि जैसे हमारा कुछ छिन जाएगा, हमें कुछ छोड़ना पड़ेगा, हमारे जीवन में कुछ कमी हो जाएगी, हमारे जीवन में कोई रस ही नहीं रह जाएगा, लाइफ बोरिंग हो जाएगी। ऐसे में संयम शब्द को ब्लैक लिस्टेड शब्दों में शामिल कर दिया जाता है, जबकि वास्तविकता में संयम का अभाव ही व्यक्तिगत जीवन से लेकर पारिवारिक और सामाजिक जीवन में संघर्ष और क्लेश पैदा कर रहा है। संयमहीनता की वजह से ही देश और दुनिया में भयंकर युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
जब हम संयमित जीवन की बात करते हैं तो इसके अभिप्राय को प्रायः इंद्रियों के संयम तक सीमित कर देते हैं, लेकिन व्यापक संदर्भ में देखा जाए तो इसमें विचार संयम, समय संयम, स्वाद संयम, वाक् संयम, पठन संयम, दर्शन संयम, श्रवण संयम, स्पर्शन संयम, मनन संयम, परिग्रह संयम भी इसके दायरे में आते हैं और इन्हें साधकर ही व्यक्ति अपने परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
मानव जीवन अति दुर्लभ है और परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकम्पा से इसे प्राप्त करने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ है। इस सौभाग्य को संयम से ही बरकरार रखा जा सकता है। गांधीजी ने कसौटी दी कि अधिक से अधिक कर्मशील व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा संयमी होगा। इसीलिए गांधीजी संयम को जीवन का स्वर्णिम सूत्र मानते हैं और कहते हैं कि संयमशील व्यक्ति का जीवन सदा सुखी रहता है।
असंयमित और विवेक रहित जीवन ही मनुष्य के पतन का प्रधान और एकमात्र कारण है। जहां संयम होता है, वहां जीवन आनंद और सुख के संगीत से भर जाता है। साधना के पथ पर अग्रसर साधक के लिए संयम से ज्यादा सहायक और कुछ भी नहीं हो सकता। संयम की महिमा ऐसी है कि साधना के पथ पर वह निमित्त और उपादान दोनों ही बन जाता है। संयम के उद्देश्य से ही मनोयोग, वचनयोग और काययोग की प्रवृत्ति होती है।
संयम को साधने के लिए मन और इंद्रियों को वश में करना होगा। हालांकि इन्हें वश में करना तो अत्यंत दुरूह कार्य है। महात्मा गांधी के गुरु श्रीमद् राजचंद्र ने इसके लिए ज्ञान रूपी लगाम और पवित्र गार्हस्थ्य के अभ्यास का साधन बताया है। हमें मन से प्रेरित नहीं होना चाहिए, बल्कि उल्टे मन को ही प्रेरित करना चाहिए। मन को मोक्ष-मार्ग के चिंतन में लगाना चाहिए। श्रीमद् कहते हैं, कोई व्यक्ति स्वयं ही विशेष सदाचार और संयम में प्रवृत्ति करता हो तो उसके संपर्क में आने वालों को भी उस पद्धति के अवलोकन से सदाचार और संयम का जैसा लाभ होता है, वैसा लाभ प्रायः विस्तृत उपदेश से भी नहीं होता।
हम अपने दैनंदिन क्रिया-कलापों को यदि बारीकी से स्कैन करें तो संयम में हमें हर समस्या का समाधान नजर आने लगेगा और हर समस्या की जड़ में किसी न किसी रूप में असंयम छुपा मिलेगा। सामान्यजन भी संयम को साध सकता है। हमें ही यह निर्धारण करना होगा कि संयम और असंयम के बीच हम कैसे और कितना संतुलन साध सकते हैं। संयम के प्रभाव को अपना स्वभाव बना लेने की क्षमता हमें अपने भीतर कैसे विकसित करनी है, यह हमारे स्वयं पर ही निर्भर है। न्यूरल फ्लैक्सिबिलिटी का सिद्धांत बताता है कि नियमित अभ्यास से हम अपनी आदतों को, अपने स्वभाव को बदल सकते हैं। हमारी आदतों में संयम का समावेश जीवन की बड़ी जंग को जीतने में सहायक हो सकता है।
हमारे भीतर हर समय एक संघर्ष चलता रहता है। भिन्न-भिन्न वृत्तियों के संस्कार उभरते रहते हैं। कभी मन में गुस्सा आ जाता है तो कभी अहंकार का भाव देखने को मिलता है। कभी लोभ का भाव तो कभी कामोत्तेजना का भाव उभर जाता है। उन भावों को परास्त करने का उपाय भी हमारे पास होना चाहिए। अन्यथा वे भाव हमें परास्त कर सकते हैं। और उन भावों को परास्त करने का एकमात्र उपाय है संयम। संयम एक ऐसा तत्व है जो आन्तरिक समस्याओं का समाधान है तो बाह्य समस्याओं का भी समाधान है।