रामा तक्षक
चूंकि बात दशकों पुरानी नहीं है इसलिए मुझे बहुत ठीक से याद है। मेरी पुस्तक के विमोचन के बाद, 22 जनवरी 2021 को भोपाल से कान्हा वाया जबलपुर जाते समय दो घटनाएं घटी। दोनों ही घटनाएं बहुत रोचक हैं। पहली घटना भोपाल से जबलपुर यात्रा करते समय ट्रेन में घटी। यह घटना संक्षिप्त है और मेरी इस पुस्तक के इर्द गिर्द घटी।
रविन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय में मेरी इस पुस्तक के विमोचन के बाद मुझे संतोष चौबे जी ने अपने स्नेह के साथ साथ पुस्तकों से भी लाद दिया था। वे भोपाल में, उनसे मिलने आने वाले साहित्य जगत से जुड़े, सभी के साथ ऐसा ही करते हैं। एक तो मेरी अपनी विमोचित पुस्तक की तीस प्रतियाँ मेरे साथ थी। दूसरा कथादेश का पूरा बंडल, दो भारी अटेचियाँ और दो हैंडबैग हमारे साथ थे। इस तरह कुल अपनी डेढ़ माह लम्बी भारत यात्रा का सामान और सरस्वती माँ का आशीर्वाद रूप, पुस्तकों के दो भारी भरे थैले। एक थैले को उठाकर एक दो मिनट पकड़कर रखो तो अंगुलियाँ हाथ का हिस्सा न होकर थैले का हिस्सा बन गई थी। यह अनुभव एक थैले को होटल के कमरे से रिसेप्शन तक लाने में हो चुका था।
यदि भारत में रेलवे स्टेशन पर, कुलीदेव न हों तो इतना सब बोझ लेकर चलना बहुत मुश्किल है। शायद असम्भव है। मैं कुली को कुलीदेव ही कहूँगा। ऐसे समय में वे देवता से कम नहीं हैं। एक तो वे आपका पूरा बोझ ढोने को राजी हैं। दूसरा उन्हें पूरा चढ़ावा भी चाहिए। इस चढ़ावे को अपना अधिकार समझते हैं। मन मांगा मिल जाये तब भी वे मूर्ति बने, पैसे गिनते, मुस्कुराते हुए ट्रेन की भीड़ में, बिना धन्यवाद दिये ओझल हो जाते हैं। यदि आप अपने कुलीदेव को अपनी ट्रेन की खिड़की से प्लेटफ़ॉर्म पर चलता हुआ देख पाते हैं तो पायेंगे कि एक खालीपन भी कुलीदेव के साथ चलता है।
भारतीय रेलवे द्वारा, बोझ ढ़ोने के रेट हालांकि तय हैं। लेकिन वे शायद व्यावहारिक भी नहीं हैं और सामान्यतः रेल पकड़ने की हड़बड़ी में उस ओर ध्यान भी नहीं जा पाता है। आप टैक्सी से उतरने से पहले ही क्रमवार कुलीदेव आपके पास आ धमकेगा।
आपसे पूछेगा ’’कौनसी गाड़ी साब ?’’
इस सवाल और आपके जवाब के बीच टैक्सी ड्राइवर ने यदि सामान की डिग्गी खोल दी तो कुलीदेव आपकी अटेची को लपक सिर पर जमा लेगा। एक अटेची को अपने सिर पर जमाने के बाद उसके हाथ दूसरे सामान को लपकते हुए दिखाई पड़ेंगे। जब तक आप गाड़ी का नाम याद करके जवाब देंगे और कुलीदेव से पैसे तय करना चाहेंगे तब तक आपका सामान कुलीदेव के कन्धे पर और सिर चढ़ चुका होगा।
कुलीदेव का जवाब मिलेगा ’’आप खुद ही दे दिजो।’’
इस समय कुलीदेव आपसे मोलभाव से बचेंगे। यदि आप मोलभाव करेंगे भी तो बोझा ढोने के दाम ऊंचे ही सुनने को मिलेंगे। यदि आपने कुलीदेव को गाड़ी का नाम और डिब्बा नम्बर बता दिया तो जब तक आप टैक्सी वाले को उसका बिल चुकायेंगे तब तक कुलीदेव भीड़ में, आँखों से ओझल हो जाता है। ऐसी स्थिति में, यदि आप पत्नी के साथ हैं तो आप पत्नी को सम्भलकर आने की कह, आपको भीड़ को चीरकर, कुलीदेव को भीड़ में भी नहीं ढ़ूढ़ पायेंगे। शायद आपको अपनी सूटकेस भीड़ भरी ऊँचाई में, कहीं दिख जाये तो साँस में साँस आ जायेगी। ऐसी स्थिति में साँस के चढ़ने का अवसर भी आ सकता है यदि आपको पीछे आती आपकी पत्नी न दिखाई दे।
इस भीड़ की रेलमठेल में कुली को पकड़ना मुश्किल है। वे अपना रास्ता भीड़ में भी निकाल लेते हैं, उनके सिर पर कितना ही बोझ हो। वे आपको भी सिर पर बैठाने को तैयार रहते हैं। आपका छोटा बैग भी छीनने की कुलीदेव की कोशिश पूरी रहती है। आप खाली हाथ होकर भी स्टेशन पर ट्रेन में, चढ़ने की पगदौड़ में, कुलीदेव से नहीं जीत सकते। आप आगे चलकर जीत का तमगा नहीं पा सकते। कुलीदेव ने आपके हिस्से का, लाल कुर्ते की बाजू पर, पीतल का तमगा पहले ही कसकर बाँध रखा है।
आपकी आँखों से कुलीदेव भले ही ओझल हो जाय। आपका दिल भले ही धुकड़ धुकड़ करने लगे, लेकिन कुलीदेव की धोखाधड़ी की चालबाजी मैंनें कभी किसी से नहीं सुनी है। जबकि उसके चेहरे की कठोर मुस्कान और ईमानदारी की पोषित पल्लेदारी, मटमैले पजामे या मटमैली धोती में सिमटी ठोस पतली टाँगें, उसकी कलाई की चमकती नशें, हाड़तोड़ मेहनत, उसके रोंयें रोयें में दमकती दिखती है।
चाहे गर्मी हो या सर्दी। कुलीदेव जमीन पर, तना खड़ा हुआ मिलेगा। ठीक नब्बे का कोंण बना, चाहे जितना ही उम्र का क्यों हो! उसकी कमर गर्दन से बात करती होगी। छोटी मूँछ थोड़ी बढ़ी दाढ़ी, गाल की चर्बी बोझ के नाम भेंट चढ़ चुकी, चमकता नाक और केवल गमछे भर का साथ। इस सबके साथ सवारी और बोझ पर गिद्ध सी निगाह कुलीदेव की खास विशेषता है।
ट्रेन के डिब्बे में पहुंच कर तो वे जैसे मठाधीश बन जाते हैं। आपका सामान सुरक्षित सम्भलवाने के बाद उनकी माँग का दायरा उनकी आंखों, भौंहों और बांहों में फैल जाता है। पैसे लेने के समय कुलीदेव आपसे पूरी दूरी बना लेगा। आप मन से जो भी राशि कुलीदेव को देंगे, वह राशि उसकी मेहनत का पूरा दाम नहीं है। इस समय माँग का देवता सामने खड़ा हो जाता है। लगता है कुलीदेव काशी मथुरा के पण्डितों की पाठशाला के विद्यार्थी रह चुके हैं।
भले ही पैसे तय करने के लिए उनसे जितनी जद्दोजहद करनी पड़े, लेकिन आखिर यात्रा का सारा बोझ वे बिना गर्दन झुकाये, आपकी सीट तक पहुँचाने का काम पूरी जिम्मेदारी के साथ करते हैं। फिर बिन गर्दन झुकाये पैसे भी पूरे ऐंठते हैं। आप उनसे जीत नहीं सकते हैं। आपकी क्या मजाल ! आपको हारना ही पड़ेगा। कुलीदेव को उसकी मेहनत से अधिक पैसे देने के बाद भी उनके गणित से सदा कम ही रहते हैं। जब कभी बात नहीं सुलझती और लम्बी हो जाती है तो मैं उनसे आखिरी निवेदन करता हूँ ’’यदि ये पैसे कम हैं तो कृपया मुझे वापस लौटा दो। अभी इतने ही हैं। अगली बार पूरे ले लेना।’’ यह पैसे वापस लौटाने का तर्क कभी कभी काम कर जाता है तो बहुत शुकून मिलता है। भोपाल स्टेशन पर भी कुछ ऐसा ही घटा। परन्तु इस बार दो कुलीदेव थे तो मुझे हाथ भी जोड़ने पड़े।
एक युवा युगल, हमारे साथ कोविड-19 ट्रेन में, भोपाल से जबलपुर तक सहयात्री था। इस युवा युगल के हाव-भाव और तौर-तरीकों से लग रहा था कि वे शादीशुदा नहीं हैं, लेकिन एक दूसरे के प्यार में, उठ बैठ और तैर रहे हैं। मेरी पत्नी और मैंने उनके इस प्रेममय होने को सराहा। वे थोड़ा और खुला महसूस करने लगे। उनके निश्छल हंसी के ठहाके भी सुनाई देने लगे और हाई फाईव में उनके हाथ उठने लगे। इस तरह कुपे का माहौल घर जैसा बन गया था।
कुछ समय की बातचीत के बाद युवती ने मेंढ़क की तस्वीर देखकर मेरी ’’जब मां कुछ कहती मैं चुप रह सुनता’’ पुस्तक को लेना चाहा। मैंने पूरे आदर भाव से पुस्तक युवती के हाथ में थमा दी। मैंने अपनी पुस्तक की पहली पाठक की मन ही मन खूब मनुहार भी की।
युवती ने पुस्तक हाथ में जो थामी तो वह दस मिनट तक पढ़ती रही। पन्द्रह मिनट होते होते युवक ने युवती को अपनी कोंहनी से दूसरी तीसरी बार ठेला भी लगाया। उसके ऐसा ठेलने से यह स्पष्ट था कि वह युवती का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहता था।
युवती ने युवक के दोनों तीनों प्रयासों का अनदेखा करते हुए पुस्तक को पढ़ना जारी रखा। मुझे इस बात से बहुत खुशी हो रही थी कि युवती पूरे मनोयोग से पुस्तक पढ़ने में तल्लीन थी। यह सब देखकर मेरी पत्नी ने भी मेरी ओर इशारा किया। हालांकि मेरी पत्नी को हिन्दी नहीं आती। वह भी यह सब देखकर बहुत खुश थी।
युवक को कुछ और न सुझी तो उसने बिस्कुट खाना शुरू कर दिया। उसने एक बिस्कुट अपनी प्रेमिका की ओर भी बढ़ाया। उसकी प्रेमिका ने बिस्कुट को स्वीकार कर, अपनी अंगुलियों में बिस्कुट पर पकड़ बना ली और बिना बिस्कुट को खाए और बिना अपने प्रेमी की ओर देखे, उसने पुस्तक पढ़ना जारी रखा। जब बिस्कुट खत्म हो गये तो युवक ने मूँगफली खाना शुरू कर दिया। इस पर भी युवती ने अपने मित्र की ओर ध्यान न दिया और पुस्तक की प्रस्तावना पढ़ने के बाद, वह युवती आधे घण्टे तक पन्ने पलट पलट कर कुछ कविताओं को पढ़ती रही।
प्रेमिका की पुस्तक पढ़ने में इतनी तल्लीनता उसके प्रेमी को फूटी आंखों नहीं सुहा रही थी। उसकी नजरों पर, उसकी प्रेमिका का रत्तीभर भी गौर ने था। वह अपनी देह की कसमसाहट के अलावा कुछ नहीं कर पा रहा था। उसकी प्रेमिका ने आधे घण्टे के बाद, धीरे से बिस्किट का छोटा सा टुकड़ा खाया और फिर से पुस्तक में निगाहें गड़ा दी।