रामा तक्षक
मानव जीवन पहिये की भाँति है। पहिये के दो सिरे हैं - बाहरी वृत व धुरी। पहिये का बाहरी वृत दौड़ता है। वह दौड़ने के लिए ही बना है। मानव में भी ठीक पहिये के बाहरी वृत की भाँति, दिमाग में विचार प्रक्रिया चलती रहती। शरीर के तल पर भी समय के साथ मनुष्य घुटनों के बल रेंगकर, जवानी और बुढ़ापे की सीढ़ी चढ़ता है। मस्तिष्क और शरीर के तल पर बदलाव जीवनभर जारी रहते। पहिये का बाहरी वृत कोसों दूर दौड़ता रहता। दूरियाँ तय करता। पहिए के केन्द्र की धुरी यथावत एक स्थान पर बनी रहती।
जीवन को समझने के लिए, पहिए की धुरी और पहिए का बाहरी वृत, ये समझने वाली दो बातें हैं। हाँ, एक तथ्य कहने लायक है कि जो व्यक्ति केवल विचारों के स्तर पर जीना चाहता है। जिसने विचार को सच समझ लिया है। उसके लिए यह आलेख भैंस के सामने बीन बजाने जैसा है।
ठीक पहिए में धुरी की तरह मानव जीवन में भी एक ऐसा ही केंद्र है। गहरे तल पर। हृदय के तल पर। मन के तल पर। यह धुरी है, जो बाहरी वृत पर, विचारों की भाँति बदलती नहीं है। यहाँ केवल होना है। समय में जैसे वर्तमान ’’अब’’ के रूप में, समय का केंद्र है वैसे ही मानव जीवन में यही ’’होना’- वह है, मैं हूँ और वे सब हैं, जीवन का केन्द्र है।
यह आप स्वयं भी अपने जीवन में देख सकते हैं। अभी आप जिस भी आयु के हों। यदि आप अपने जीवन को पीछे मुड़कर देखें कि पिछले साल, 10 बरस पहले या 20 बरस पहले या बचपन तक कुछ ऐसा है आपके जीवन में, जो ठीक वैसा ही है जो बचपन में था, जो दस बरस पहले था । जो जवानी में था और आज भी है।
सामान्यतः जन्म के बाद सशर्त जीवन - परिवार की शर्तें, पाठशाला की शर्तें, धर्म की शर्तें, समाज की शर्तें, ये सब हमारे मन पर, धूल की तरह परत दर परत, चढ़ती चली जाती और हम अपने केंद्र से, धुरी से दूर होते जाते उसको भूल जाते। यह एक नायाब तरीका है मानव जीवन पर नियन्त्रण का। मानव के चेतन पर उसके मन के तल पर धूल की पर्तें चढ़ा दो। जब मानव के इस तल पर विचारों की पर्तें चढ़ जायेंगी तो उस पर नियन्त्रण आसानी से हो जायेगा। उसे युद्धभूमि में आसानी से लाया जा सकता है, युदध की आग में झोंका जा सकता है। आज तक सभी राजनीतिज्ञों ने, धर्मों ने यही किया है और अभी भी कर रहे हैं।
सशर्त जीवन बोझिल बन जाता है। व्यक्ति की चहक उसका चौतन्य है। शर्तिया समाज व्यक्ति के चेतन को छीन लेता है। उसकी चहक को छीन लेता है। यदि व्यक्ति जोर से ठहाके लगाने लगे तो समाज व्यक्ति के ठहाकों को भी झेल नहीं सकता। समाज जीवन के उत्सव को, सशर्त कर जहरीला बना देता है। व्यक्ति के जीवन पर नियंत्रण करना हो तो उसे, उसके धरातल, सेक्स से काट दो। यहां सभी धर्मों ने यही किया है। तभी तो व्यक्ति, अपने धरातल को पढ़ने, समझने की अपेक्षा, धर्म-गृह की दीवारों में गर्दन झुकाए, धोक देने चुपचाप चला आता है।
धर्मों ने मानव को, मानव न रहने दे कर, धार्मिक बना दिया। एक लेबल् लगा दिया। एक परत चढ़ा दी। तुम मुसलमान हो, तुम हिन्दू हो, तुम ईसाई हो, तुम यहूदी हो। ऐसी दीवार खड़ी कर, इनको आसानी से आपस में लड़ाया जा सकता है।
इस तरह व्यक्ति जीवन की परिधि पर जीवन जीता है। जब परिधि पर जीता तो विचार प्रक्रिया उसका धरातल बन जाता है। वह इसी विचार प्रक्रिया को जीवन में सुलझाता रहता है। यही उसका सच बन जाता है। वेदों का सुना संजोया ज्ञान कहीं विचारों की रेत की परतों के तले दब लुप्त सा हो जाता है। बहुत गहरे में।
विचार के धरातल पर अहम और बेइज्जती मनुष्य जीवन का केन्द्र बन गये हैं। यदि किसी को झँझट मोल लेना हो तो किसी की आलोचना कर दो। इससे भी आगे बढ़ना हो, अपना सिर फुड़वाना हो तो किसी को गाली दे दो। केवल जीभ चलाने की देरी है। दुश्मनी की दीवारें चन्द सैकण्डों में खड़ी हो जायेंगी। आपको हाथ पैर हिलाने की जरूरत नहीं है। यह खबर भी आग की तरह फैल जायेगी। मानव जीवन रुग्ण हो गया है। परिधि पर है। धुरी का उसे भान नहीं है।
कहते हैं एक बार बुद्ध प्रवचन दे रहे थे। कुछ लोग बुद्ध को उलटा सीधा कह रहे थे। एक दो गाली भी दे रहे थे। प्रवचन समाप्ति के बाद बुद्ध सीधे उन लोगों के पास गये। बुद्ध ने उनसे कहा कि जो प्रसाद अभी तक आप बाँट रहे थे। जो अपशब्द आप लोग कह रहे थे। उस प्रसाद को मैंने अपनी झोली में नहीं लिया। आपका प्रसाद मैंने स्वीकार नहीं किया। मैंने अपने हाथ प्रसाद लेने के लिए नहीं बढ़ाये। प्रसाद बाँटने वाले के पास ही रहने दिया। वह प्रसाद आप ही के पास है। बुद्ध की यह समझ किसी भी धर्म के देवालयों में नहीं मिलेगी।
इस तथ्य को थोड़ा और समझने का प्रयास करें। प्रेमी युगल के हृदय तल पर प्रेम घटता है। यही तल जीवन की ऊँचाइयों को छूने का, मंजिलें तय करने का सहज सम्बल देता है। दिल की दीवारों के बीच समर्पण घटता है।
जब जब प्रेम घटता है तब बाहें भी मिलती हैं। मिलन व तड़प की आहें भी जगह पाती हैं । हम आलिंगनबद्ध होते हैं। यह घटना नियति के सिरे पर घटती है यानी जीवन की धुरी के सिरे पर घटती है। युगल का एक होने के लिए मिलन। एक होकर जीने का संज्ञान। जीवन की धुरी पर द्व सम्भव नहीं है। इसीलिए तो प्रेम को तलवार की धार पर चलने की संज्ञा दी गयी है।
जीवनयापन की जब बात आती है तो हमें प्रेम के तल से , धुरी से जीवन के वृत की परिधि के सिरे पर आना पड़ता है। योजनाएँ बनानी पड़ती हैं। अन्य व्यक्तियों से सम्पर्क साधना होता है। अपनी सोच को अभिव्यक्त करना होता है। यह सब चिंतन के सिरे पर, प्रश्न और उत्तर के जगत पर, जीवन के वृत की परिधि पर घटता है।
प्रेम का दिनमान जब प्रतिदिन की ऊँच नीच को, पेचीदगियों को जीता तो उसे परिधि पर आना ही पड़ता है। यहाँ परिधि पर आकर, वहाँ पर खड़े प्रश्नों के व्यूह में, युगल अपने प्रेमाधार - हृदय तल पर, भूल की धूल चढ़ने लगती। दिमाग परिधि की इस राह पर नये नये प्रश्न खड़े कर, नये नये सपने देकर अचेतन की भूल भूलैया में धकेल देता है।
व्यक्तिगत स्तर पर थोड़े बहुत झँझट विकराल रूप ले लेते हैं। शाम को घर पर थोड़ा झंँझट हो तो वह झँझट बिस्तर में साथ सोता है। और सुबह जब आप उठते हैं तो वह झँझट सामने खड़ा मिलता है। यह सब विचारों के तल पर घटता है। उसको, झँझट को निपटाने का, उस झँझट को छोड़ने का उसे दफन करने का समाधान ना हुआ। पति-पत्नी का वैचारिक मतभेद, उनके सम्बन्ध को, चौराहे पर ला खड़ा करता है। विचार के तल पर, एक व्यक्ति के, हजारों रुप हैं परन्तु हृदय के तल पर हजारों व्यक्ति एक सूत्र से जुड़े हैं -एक हैं।
पति-पत्नी के बीच छोटा सा मनमुटाव, दोनों के बीच, उनके बिस्तर पर तलवार की धार बन जाता है। उनके बीच आलिंगन का तो प्रश्न ही नहीं उठता। उनकी नजदीकी भी सैकड़ों कोसों की दूरियाँ बन जाती हैं। एक कड़वाहट, दो शरीरों में, बिस्तर पर सोती है। एक ऐसी कड़वाहट जो केंचुली की परत बन, परत दर परत मोटी होती चली जाती है। दो व्यक्ति जो प्यार के कारण जुड़े थे। जो हृदय तल पर जुड़े थे। वे वैचारिक तल पर आकर एक दूसरे का चेहरा देखना भी नहीं चाहते। वे अपने दिल को भूल जाते हैं और दिमाग का दही बना लेते हैं।
एक ईर्ष्या भाव, द्वेष, एक क्रोध भाव जो एक केंचुली की तरह से दिमाग को जकड़ कर बैठ गया है। वह एक प्रश्न के सिरे से शुरू होकर, अन्तहीन प्रश्न-श्रृंखला बन, झगड़े की आग बन, जीवन में महाभारत का रूप भी ले लेता है। उसको छोड़ने छुड़ाने का कोई इन्तजाम न हुआ। झँझट जो साँझ घर पर हुआ था। सुबह उठे तो सामने था। वही काम के दफ्तर में काम की टेबल तक पहुंच गया तो वहाँ भी आपको परेशानी ही देगा। ठीक इसके विपरीत यदि झँझट दफ्तर की कुर्सी पर शुरू हुआ या टेबल पर शुरू हुआ और वह शाम को घर पहुंच जाता है तो वह झँझट खाने की टेबल पर पहुंच जायेगा। यह केंचुली बना साथ घूमता है। उस केंचुली से छुटकारे का उपाय यथासमय न हुआ तो।
अब प्रश्न यह उठता है कि दिनभर में मानसिक तल पर जो क्रोध, ईर्ष्या, संताप व पीड़ा एकत्रित होती है उससे छुटकारा कैसे पाया जाय ? ताकि जीवन में मस्तिष्क एक कचरा पात्र न बनकर स्वस्थ यन्त्र बन जाये। भारतीय दर्शन में इस प्रश्न पर, इस क्षेत्र में बहुत व्यापक स्तर पर आदिकाल से शोध हुआ है कि जीवन में दुःख से छुटकारा कैसे मिले ? हमारे ऋषि मुनियों ने बहुत तपस्या की है, मनस के सूक्ष्म बिन्दुओं तक पहुँचने की। दुःखों से छुटकारा पाने की। आत्म-मुक्ति की राह बनाने की।
ध्यान, ध्यान और ध्यान ही एक उपाय है। मौन भी बैठना हो सकता है। नृत्य की थिरकन भी और हँसी का फव्वारा भी ध्यान है। ध्यान धुरी के तल पर एक अनुभूति है। जो विचार शून्य है। इसकी अभिव्यक्ति गूँगे के मुँह में गुड़ जैसी है।
सहज साक्षी हो जीवन के वृत की परिधि से जीवन की धुरी पर ध्यान की सीढ़ी के सहारे सहज उतरने का श्रम है। जब आप इस ध्यान की सीढ़ी से धुरी की तरफ उतरेंगे तो वृत पर, विचार के तल पर जितना कचरा आपने दिनभर में इकट्ठा किया था वह पुँछ जायेगा। जो धूल इकट्ठी हुई थी वह झड़ जाएगी। जो क्रोध, ईर्ष्या, संताप व पीड़ा की केंचुली बनी थी वह घुल जायेगी और आपके जीवन में खिलना हो जाएगा। मानव जीवन में परिधि और धुरी की समझ व उसमें तादात्म्य कैसे बिठाया जाय यही एक चुनौती है।