अपने जन्मदाताओं के साथ, पिछले दिनों सप्ताह भर से अधिक दिन तक रहने का साथ मिला और यह साथ कई मायनों में अनुपम रहा। इस अल्पकाल में मैंने, मेरे बूढ़े होते मां-पिता को बहुत निकट से देखा। उन्हें अब बूढ़े और आश्रित होते देख, मेरे बालकाल का समय भी मेरे सामने आ खड़ा हुआ। मेरी याद में उनकी जवानी के दिन उभरने लगे। जो अब एक अध्याय रच, इतिहास हो गये हैं।
मेरे पिता जीवन में कभी आलसी न थे। वे उठते ही गाय भैंस की देखरेख में जुट जाते। उनकी नौकरी मलेरिया विभाग में लगी थी। वे जीवनभर मलेरिया बीमारी के उन्मूलन में लगे रहे। वे घर से सुबह नौ बजे घी, रोटी और दही खाकर काम के लिए पैदल, दूसरे गांवों में जाने लिए निकलते थे। घी मीठा खाने के सदा शौकीन रहे हैं। आज भी हैं। वे घर से निकलने से पहले, हर दिन सुबह स्कूल जाने से पहले, वे हम सब उम्र में छोटे भाई बहिनों को बाल्टी बरही, तौलिया, कच्छा, बनियान और साबुन लेकर कुए पर चलने को कहते।
कुए पर पहुंच कर, वे लोहे की बाल्टी के कड़े में गांठ लगाकर, चकली के सहारे बाल्टी को कुएं में पासते। कुए के पानी में बाल्टी के टिकते ही बाल्टी टेढ़ी हो कुछ पानी भरकर, बरही के सहारे पानी में सीधी खड़ी हो जाती और पानी में तैरती रहती। बाल्टी पूरी भरे, इसके लिए प्रयास करना पड़ता। बरही को थोड़ा खींच खींच कर, मेरे पिता को पानी में बाल्टी को झबोले लगाने पड़ते। कभी कभी बाल्टी को कुएं में पासते समय जैसे ही बाल्टी पानी में टिकती और बरही यदि ढ़ीली बनी रहती तो कुए पर पानी भरने आई पनिहारिन की बाल्टी बरही के साथ उलझकर, बाल्टी बरही में गलबहियां हो जाती। इस गलबहियां को छुड़ाने में कभी कभी समय भी लग जाता।
मेरे पिता हम सबको, एक एक कर, नहलाकर घर भेज देते। मेरी मां इस समय चूल्हे पर रोटी सेंक रही होती। इसी तरह मां भी हमको रोटी, घी, दही खिलाकर स्कूल जाने के लिए तैयार होने को कहती। घी दही तभी मिलता था जब भैंस या गाय दूध दे रही होती थी। जब घर में भैंस या गाय दूध नहीं देती थी तब ऐसी स्थिति में पड़ोसियों से छाछ मांगकर और चटनी पीसकर गुजारा चलता था।
मेरे पिता हम सबके बाद नहाकर, एक बाल्टी पानी भी भरकर साथ में लाते। समय पर अपने काम पर पहुंचने के लिए वे सदा जल्दी में होते। समय उनके हाथ से फिसलता हुआ उनके चेहरे पर दस्तक दे रहा होता। गर्म गर्म भोजन कर वे अपने थैले के साथ घर से अपनी नौकरी के लिए निकल लेते। वे सीधे चार पांच किलोमीटर दूरी पर स्थित करनीकोट गांव पैदल जाते थे।
इस गांव से ठीक पहले साहबी नदी पड़ती है। बरसात के दिनों में बाढ़ के समय साहबी को पार करना बहुत मुश्किल होता था। ऐसे समय में मेरी मां यदि किसी से बाढ़ की सुन लेती थी तो चिंतित हो जाती थी। आसमान में अपनी बाहें खोलकर, आंखें बंद कर, खैरियत की राह खोजती।
मेरे पिता के लिए करनीकोट ही समझो मुख्यालय था। वहीं उन्हें हाजिरी देनी पड़ती थी। वहीं से वे अन्य पास के गांवों की गली गली जाकर, दिनभर मलेरिया बुखार से लोगों को निजात मिले, इसके लिए घर घर जाकर बुखार से पीड़ित लोगों को क्लोरोक्विन की गोलियां देकर आते थे। यह सब सरकारी उपक्रम का हिस्सा था।
गांव में जब कभी किसी को बुखार हो जाता तो पीड़ित के परिजन हमारे घर दौड़े हुए बुखार की गोलियां लेने आते थे। थोड़ी बहुत गोलियां सदा एक डिब्बे में रखी रहती थी। उसी डिब्बे से एक दो गोलियां आये हुए को ’’भूखे पेट मत देना’’ कहते हुए थमा दी जाती।
पिता के साथ कई बार, करनीकोट गांव जाने का मौका मिला। अस्पताल में बीमार व्यक्ति आ जाता तो मेरे पिता उस बीमार व्यक्ति की अंगुली को थोड़ा भींच, उसमें सूई चुभाकर, खुन को एक बूंद बनने तक रिसने देते। उसके बाद ब्लड सैंपल, एक कांच की स्लाइड पर लेकर, उसे दूसरी स्लाइड पर मलते और रक्त के सूख जाने के बाद उन दोनों स्लाइड्स को आपस में जोड़कर, एक कागज में लपेट कर, उस कागज पर मरीज का नाम गांव लिख कर, अपने थैले में रख लेते। इस तरह ब्लड सैंपल इकट्ठे करके कुछ दिनों बाद जिला लैब में इन स्लाइड्स को किसी के हाथ भिजवाते या स्वयं जाते। उन दिनों गांव में अस्पताल या तो था ही नहीं या नाममात्र का था।
मेरे दादी भी सदा सक्रिय रहती। वे भी सुबह-सुबह उठकर सबसे पहले भैंसों को चारा डालती। उनकी दिनचर्या इसी तरह से शुरू होती। दोपहर का भोजन कर वे अपनी चारपाई पेड़ के नीचे डाल लेती। नोहरा, जहां भैंसें बंधती थी, गांव के बाहरी छोर के मुख्य रास्ते पर था। बहुत से राहगीर उस रास्ते से निकलते। ऐसे में दिनभर, दादी की रामरमी अनजान लोगों से होती। रामरमी की बात आगे भी बढ़ जाती। बतियाना शुरू हो जाता।
दादी राहगीर से पूछती ’’कहां से आये हो? गाय खरीद कर लाये हो?
बछिया या बछड़ा भी साथ होता। गाय कितने दिन की ब्याई है ?
इतनी दूर चल आये हो !
कहां जाना है?
दादी हर राहगीर से उसका गन्तव्य पूछती।
शाम के समय गन्तव्य अवश्य पूछ लेती। चार छः कोस की बात होती
तो कह देती या उत्तर में यदि दूरी कम होती तो दादी कह देती ’’जल्दी पैर उठाओ। दो पग पर है। जल्दी ही घर पहुंच जाओगे। घर पर बालक चीलक बाट देख रहे होंगे।’’
उत्तर में यदि अधिक दूरी का अहसास होता तो दादी कहती ’’ठहर जाओ।’’
’’गाय को खूंटे से बांध दो।’’
गाय को चारा डाल देती।
राहगीर को चारपाई सौंप देती।
दादी किसी के हाथ मेरी मां को एक आदमी का खाना बनाकर भेजने की खबर भेज देती।
थका राहगीर रोटी साग खाकर सो जाता। सुबह आंख खुलते ही राहगीर अपनी राह हो लेता।
एक बार मैं और मेरी पत्नी नीदरलैंडस में एक मित्र के घर पर थे। यह बात नब्बे के दशक की है। मैंने इस डच मित्र को मेरी दादी के बारे में बताया। विशेषतः उनकी राहगीरों और पशुओं की मेहमाननवाजी के बारे में।
डच मित्र ने बिना देर किए सलाह दे डाली और बोला ’’जब इतना आवागमन था तो आप लोग होटल खोल लेते!’’
मैं पहले लो सलाह सुनकर एक बारगी गम्भीर हुआ और दूसरे ही क्षण हंस भी पड़ा।
बाद के वर्षों में यानी नब्बे के दशक में ही इस डच मित्र ने मेरी एनफील्ड मोटरसाइकिल से राजस्थान की यात्रा करनी चाही। उन्होंने यात्रा भी की लेकिन वे अब इस संसार में नहीं है। वे बहुत अच्छे मैकेनिक थे। उनके फार्महाउस पर उनकी एक बड़ी गैराज थी। जिसमें कार रिपेयर करने का पूरा साजो-सामान था। वे पुरानी कार खरीदकर उसका एक एक नट बोल्ट खोलकर पुनः जरूरत के अनुसार नये पुर्जे लगाकर, उस कार पर पेंट करके नयी कार तैयार कर लेते थे।
’ ’ राजस्थान में एनफील्ड मोटरसाइकिल से यात्रा शुरू करने से पहले उन्होंने मुझसे पूछा ’’मोटरसाइकिल कहीं धोखा दे गई तो क्या करूं ?’’
’’गांव जंगल में खराब हो गई ?’’
उसने एक ही सांस में दो सवाल किये।
मैंने उसे भरोसा दिलाया कि पहली बात तो परेशानी नहीं आयेगी। यदि शहर से दूर कोई परेशानी आ जाये तो गांव के किसी मुखिया के घर चले जाना। अपनी समस्या मुखिया को बता, आप रिलैक्स हो जाना। आपके लिए गांव दौड़ पड़ेगा।
समस्या सुलझ जाएगी।
पहले पहल उसे विश्वास न हुआ।
मैंने फिर से अपनी सलाह दोहराई। वे मान गये। उन्होंने राजस्थान के सुदूर गांवों की यात्रा की। वे अच्छे फोटोग्राफर भी थे। इस राजस्थान यात्रा के दौरान ली गई एक फोटो पर उनको पुरस्कार भी मिला। यह फोटो ग्रोनिंगम शहर के किसी म्यूजियम में आज भी टंगी है। इस यात्रा की कुछ फोटो मेरे घर पर भी नीदरलैंड्स में दीवार पर टंगी हैं।
’’मेरी दादी 15 जनवरी 1975 के सबेरे आखिरी बार बिस्तर चारपाई से उठी थी। मकर संक्रांति के दूसरे दिन। उन्होंने उठकर भैंसों की ल्हास में चारा डाला। चारा डालने के बाद वे वापस अपनी चारपाई पर आकर, दीवार के सहारे पीठ लगाकर रजाई में बैठ गई। वे ऐसी नींद सोई कि जीवन को अलविदा भी कह गई।
सुबह के समय मेरे पिता रसोई में चाय बना रहे थे। हम सब बहिन भाई बनती चाय की आग के ताप का सुख भोग रहे थे। तभी चचेरे भाई ब्रह्म प्रकाश ने गली से आवाज दी। उसकी आवाज के सुनने के पहले उच्चारण का स्वर, दादी के देहावसान की सूचना के लिए पर्याप्त था। पिताजी बनती चाय को छोड़कर दौड़ पड़े थे। कुछ ही देर में गांव भर के लोग आ जुड़े थे। एक डेढ़ घण्टे में, दादी की अर्थी घर से उठ गई थी। मैं भी सुबकियां भरता हुआ, दादी की अर्थी के पीछे पीछे था। जब चिता की आग जब धू-धू कर जल रही थी तब मेरे पिता ने मुझे धकेला और कहा कि स्कूल जाओ। उस दिन मेरा सातवीं कक्षा का टेस्ट था। मैं मरे मन से रोते रींकते हुए टेस्ट देने स्कूल पहुंच गया था। दादी के देहावसान के बाद मेरी मां पर काम की कुछ अतिरिक्त जिम्मेदारी भी आ गई थी। दादी के जाने के बाद मां सदा यही कहती ’’पीपल का पेड़ चला गया।’’
मेरी मां का दिन सबेरे गांव में, मुर्गे की बांग सुनते ही शुरू हो जाता था। मुर्गे की पहली बांग कान में पड़ी और दूसरे ही क्षण मां की देह चारपाई छोड़, दौड़ने को होती। वे आंखें मलने लगती और उनके पैर तुरंत जमीन पर टिक जाते। उन्हें लगता अब समय पकड़ में नहीं है। दिनभर जल्दी जल्दी में बीतता। सुबह-सुबह चक्की से आटा पीसना, दही बिलोना, पूरे परिवार के लिए खाना बनाना। बच्चों के स्कूल जाने के बाद वे खेत से घास खोदकर लाती। जब कभी समय मिले जाता तो दोपहर में चारपाई पर, अपनी देह को विश्राम भी देती। वे अपने परिवार और परिवेश को पालने में अपनी पूरी ऊर्जा लगाती।
माँ और संतान का रिश्ता बहुत गहरा है। इस सम्बंध के तानेबाने को परिभाषित कर अभिव्यक्ति देना लगभग असम्भव सा कार्य है। यह सम्बंध इतना बेजोड़ और गहरा है कि कोई दूसरा सम्बन्ध इस रिश्ते की गहराई को माप नहीं सकता है। इस सम्बंध की बराबरी नहीं कर सकता है। हाड़, माँस, खून बनाने, जन्म देने, दूध पिलाने, लाड़ प्यार, पोषण और दुलार और यहाँ तक की फटकार की भूमिका में माँ, जीवन का क्रीड़ा आँगन है।
माँ और संतान के सम्बन्ध की ऊँचाई को भी कोई दूसरा रिश्ता छू नहीं सकता है। माँ और संतान के सम्बन्धों की इस गहराई और ऊँचाई ने ही शायद सामाजिक सम्बन्धों में पितृसत्ता को भी जगह दी है। पितृसत्तात्मक सम्बन्धों को समाज में स्थापित करने में माँ और संतान सम्बंध की अप्रत्यक्ष रूप से अहम भूमिका है। माँ और संतान के सम्बंध का तृप्तिदायक अनुभव पितृसत्ता को भी अपने में समेटे है।
हाल ही में मेरी दादी जी की बरसी थी। वे 15 जनवरी 1975 को चल बसी थी मैंने पिताजी को बताया ’’आज दादी की बरसी है।’’ यह सुनकर मेरे पिताजी की आंँखें भर आई। उनका गला रूंध आया। ’’मां तो मां ही होती है।’’ यह कहते हुए उनकी सांस के साथ सुबकी फफकी। दुनिया का कोई भी रिश्ता माँ और संतान के रिश्ते की बराबरी नहीं कर सकता है। माँ ने मानव को रचा है। मावन ने सँसार रचा है। इन अर्थों में मानवता और इससे एक कदम आगे बढ़कर माँ सँसार की धुरी है।
’’माँ’’ और संतान का अस्तित्व का सबसे निकट का सम्बंध है। इस सम्बंध की गहरे में घनिष्ठता अकथनीय है। हाँ, आप अनुभव के तल पर इसे जी सकते हैं। महसूस कर सकते हैं और एक आखर ’’माँ’’ की पुकार आपको गहरे में जीवनरस से भर देती है। कोई और दूसरा शब्द इसका विकल्प नहीं है। परमात्मा की पुकार भी ’’माँ’’ की पुकार के रास्ते से ही गुजरती है। यह एक ऐसा संयोग है कि माँ की पुकार के रास्ते परमेश्वर की झलक कहीं बहुत आस पास बिखरने लगती है। ऐसे में माँ के मुख से सरल सरस शब्दों को सुनना एक संगीत सा लगता है। इसीलिए मेरे देखे -
माँ सार है शब्दकोश का,
माँ संश्लेषण है जीवन का,
माँ भाव महासागर सा।
पिछले दिनों के साथ में, मेरी मां ने बहुत सी बातें बताई। एक दिन वे मुझे मोबाइल से कार में और कार से लिफ्ट में, लिफ्ट में समय मिलते ही फिर से मोबाइल मेरे हाथ में देखकर मेरी मां मुझसे बोली ’’एक पुरानी बात बताऊं?’’ इतना कह कर मेरी मां मेरे खुले हुए मुंह की ओर देखने लगी और बोली ’’तेरा भी बिना फोन के काम नहीं चलता !’’उनके स्वर में शिकायत थी। मैंने इतना ही कहा ’’हां, मां आप ठीक कह रही हो। पहले बिना घड़ी कलाई सूनी लगती थी। अब बिना फोन हाथ सूना लगता है।’’ यह सुनकर मेरी मां के चेहरे पर असंतोष और क्षोभ का भाव उभरा। वे बोलीं ’’मेरा काबू चले तो मैं तेरा फोन कहीं गहरे पानी में फेंक दूं।’’ मैंने मां के हाथ में ’’लो मां किसी कूए जोहड़ में फेंक दो।’’ कहते हुए मोबाइल को थमा दिया।
मां ने फोन को अपनी बगल में रख लिया और बोली ’’जब तक मेरी बात पूरी न हो मोबाइल की तरफ हाथ न बढ़ाना।’’सहमति के साथ ही मां की बात को आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा ’’हां मां अपनी बात बताओ। जरूर बताओ।’’ मेरी मां ने अपनी एक अंगुली मुंह पर लगाकर कहना शुरू किया और बोली ’’पहले गांव में चक्की से आटा पीसते पीसते चक्की के पत्थर के पाट घिस जाया करते थे। जब चक्की के पाट घिस जाते थे तो चक्की बहुत भारी चलने लगती थी। आटा पीसना दूभर हो जाता था।’’
’’फिर क्या करते?’’ मेरी जिज्ञासा ने स्वर में सिर उठाया। मेरी मां ने अपनी बात आगे बढ़ाई और कहा ’’किसी दूसरे के घर जाकर उनकी चक्की पर आटा पीसना पड़ता। यह सब चक्कियों के साथ घटता था। इसलिए सब एक दूसरे की मदद करते। दो चार दस दिन में गुवारिया लोग आते थे। वे चक्की के ऊपरी पाट को उतार कर छैंनी से चोट मार मार कर, चक्की के पाट को खुरदरा बना देते थे। कभी कभी आटा चक्की का काठ का कीला भी घिस जाता या खराब हो जाता तो खाती यानि बढई आकर नया कीला, चाकी में लगाकर जाता। कभी कभी कीले को रोकने वाली म्यानी भी कीले के साथ बदलनी पड़ती। पुराना बढ़ई नया कीला और नयी म्यानी लगाकर चक्की को घुमाकर देखता। चक्की संतुलन में न चलती तो वह हथोड़े से हल्के हाथ से ठोक पीट करता। इस श्रम के बाद वह फिर से चक्की को पूरी ताकत के साथ घुमाकर छोड़ देता। चक्की के पाट की गति तेज हो जाती तो वह चक्की के ऊपरी पाट पर हल्के से हाथ रखकर उसे सहज थाम लेता। चक्की हल्की और फर्राटे से चलती हुई घर्राटे के साथ रूक जाती।
चक्की के कीले और म्यानी की मरम्मत से संतुष्ट होकर वह घर से बाहर जाकर बीड़ी पी आता। उसके बाद, अपने औजारों को उठाते हुए पुराने बढ़ई ने एक दिन कहा ’’ये म्यानी और कीला नाम मात्र का ही नहीं है, बल्कि चाकी का कळ है यानि कळपुर्जा है। आने वाले समय में दुनिया कळ पर चलेगी। मिनख (मानव) इतना मशीन सा हो जायेगा। मिनख (मानव) मशीन सा चलेगा। आदमी यंत्रवत चलेगा। समय कळ के कब्जे में होगा इसीलिए यह कळजुग कहा जायेगा।