वेदव्यास
आपको याद होगा कि जब 1947 में भारत की स्वतंत्रता का ऐलान हुआ था, तब सबसे पहले इस आजादी की लड़ाई के महानायक महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘अब हमें कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए, क्योंकि इसने अपना आजाद भारत का लक्ष्य प्राप्त कर लिया है।‘ उस समय सबसे पहले सेवा और त्याग बलिदान वाली कांग्रेस ने ही महात्मा गांधी का एक अघोषित निष्कासन शुरू कर दिया था और फिर भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी पर महात्मा गांधी ही कहा करते थे कि अब मेरी कोई नहीं सुनता। तब से लेकर अब 2024 तक भारत के नवनिर्माण और विकास का इतिहास भी इसी बात का गवाह है कि गांधी के लोग (कांग्रेसजन) ही आज गांधी को सबसे अधिक भूल गए हैं और अब हमारी गांधी दर्शन की सारी समझ केवल इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी तथा प्रियंका गांधी की परिक्रमा तक सिमट कर रह गई है।
यह हमारा ही दुर्भाग्य है कि नए भारत ने स्वतंत्रता संग्राम के सभी निर्माताओं को हमने अप्रासंगिक मानकर भुला दिया और उन नारों तथा कहानियों को परिवर्तन के हाशिए पर धकेल दिया जिन्हें कभी आम आदमी सुन-सुनकर देश और समाज के लिए समर्पित होता था। महात्मा गांधी को आजाद भारत की सत्ता व्यवस्था ने मूर्ति और फोटो-कलैंडर से लेकर नोट तथा वोट से बदल दिया। गांव-नगर के चौराहों पर खड़ा कर दिया और दुनिया की सबसे बड़ी रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) से भी जोड़ दिया। महात्मा गांधी के असाधारण जीवन विचारों को जिस तरह हमने अपने मन से बाहर प्रचारित और स्थापित किया। आज उसी अतिवादी हल्केपन का यह परिणाम है कि महात्मा गांधी की परिभाषा-मेरा जीवन ही मेरा दर्शन है, अब भारत की सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक तथा राजनीतिक रीति-नीतियों से गायब है।
महात्मा गांधी और कवीवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ डॉ. भीमराव अंबेडकर और स्वामी विवेकानंद भी मेरी नजर में दुनिया के प्रमुख महान संत, सैनिक और समाज सुधारक के रूप में आज सोच और विचार के स्तर सबसे अधिक विस्थापित हैं तथा भारत की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में अस्पृश्यता के शिकार हैं। यही कारण है कि अब हम एक भारत नहीं रहकर एक महाभारत बन गए हैं। जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीयता के विकास और विभाजन ने महात्मा गांधी की संपूर्ण, परंपरा और विरासत सत्ता की राजनीति ने इस तरह कमजोर कर दिया है कि अब ’’मजबूरी का नाम ही महात्मा गांधी हो गया है।’’ भारत की इसी मजबूरी का दूसरा नाम ‘आम आदमी‘ है जिसे कभी इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ‘ के नाम पर तो कभी सोनिया गांधी ने ‘कांग्रेस के साथ‘ के नाम पर चुनावी दंगल का पहलवान बनाया था और फिर लगातार उसे सरकारी अनुदान पर जीना मरना सिखाया था।
कांग्रेस को लगातार 50 साल से अधिक समय तक सत्ता-व्यवस्था के सिंहासन पर राजनीतिक करने वाला 77 प्रतिशत यह आम आदमी आज इसीलिए अपने महात्मा गांधी को खोज रहा है और पूछ रहा है कि-बापू क्या तुमने इसीलिए हमें आजादी दिलाई थी कि हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन देशी-विदेशी कंपनियों से अपने जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ते रहें और क्या इस लोकतंत्र को घोटालों, कालाधन, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, हिंसा और महिला, दलित, आदिवासी तथा अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की इंद्रसभा में बदल दें? अतः महात्मा गांधी को याद करते हुए मैं यही सवाल आज कांग्रेसजनों से पूछना चाहता हूं कि-उन्होंने कभी महात्मा गांधी को देखा है, पढ़ा है, सुना है और समझा है? क्या किसी राजपुरुष ने महात्मा गांधी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग‘ और सपनों के भारत की अवधारणा पुस्तक ‘हिंद स्वराज‘ को जाना है? जिसमें कहा गया है कि-‘यह किताब द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है और पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है।‘
महात्मा गांधी को भूलने का ही आज यह परिणाम है कि भारत का सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन इस लोकतंत्र का एक खंड-खंड पाखंड पर्व बन गया है तथा विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका भी भारत के संविधान की रक्षा करते-करते थकान महसूस कर रही है। हमें आश्चर्य होता है कि जिस राज्य व्यवस्था ने महात्मा गांधी के जन्मदिन और पुण्यतिथि को सरकारी खर्च पर ‘रीत का रायता‘ बना दिया है वही राज्य प्रशासन अपनी सामाजिक-आर्थिक नीतियों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की महाजनी सभ्यता को क्यों फलने-फूलने दे रहा है।
मैं महात्मा गांधी को भारत की अंर्तआत्मा की आवाज मानते हुए भी जानना चाहता हूं कि कांग्रेस ने महात्मा गांधी की उपेक्षा करके ऐसा क्या हासिल कर लिया है जिस पर वह गर्व कर सके? हमारा मानना है कि कांग्रेस की दैनिक रीति-रिवाजों से ही देश और समाज में गरीब और अमीर के बीच हिंसा बढ़ रही है। सत्ता व्यवस्था का पूरा ढांचा ही सामाजिक-आर्थिक असमानता से हिंसा-प्रतिहिंसा में बदल गया है। यही कारण है कि आजादी के बाद से महात्मा गांधी की प्रतिरोध और असहमति के नायक के रूप में विपक्ष की राजनीति ने ही सबसे अधिक इस्तेमाल किया है। यहां तक कि गांधी जी की दुश्मन ताकतें भी अब सुबह-शाम के धरने, प्रदर्शन, सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन में महात्मा गांधी के नाम और तौर तरीकों का ही उपयोग कर रही हैं। इस तरह महात्मा गांधी आजादी के पहले भी सत्ता व्यवस्था से बाहर थे तो आज भी अपनी विरासत की पार्टी में सत्ता व्यवस्था से बाहर हैं लेकिन आम आदमी की प्रेरणा आशा अभी तक बने हुए हैं।
मैं कोई महात्मा गांधी का रिश्तेदार तो नहीं हूं लेकिन ऐसा मानता हूं कि गांधीजी आज की दुनिया में भी आम आदमी की उम्मीदों का सवेरा हैं और यही कारण है कि गांधी जी अपने देश भारत में घर की मुर्गी की तरह दाल बराबर हैं। कोई भला दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला से, अमरीका के लिंकन और मार्टिन लूथर किंग से, रूस के तोल्सतोय और गोर्की तथा चेखव से और तीसरी गरीब दुनिया के देशों से पूछे कि महात्मा गांधी उन्हें क्यों याद आते हैं और वैज्ञानिक आइंस्टीन उन्हें एक चलता-फिरता फरिश्ता क्यों कहते हैं?
महात्मा गांधी कोई देवता और संत तो नहीं थे लेकिन भेदभाव और असमानता की सत्ता-व्यवस्थाओं ने ही उन्हें मोहन से महात्मा बनाया था और दुनिया की सभी भाषाओं के साहित्य, कला और संगीत ने उन्हें अपने सपनों का आधार बताया था। कांग्रेस को ऐसे में सोचना चाहिए कि-सत्य के प्रयोग अब उसने क्यों छोड़ दिए हैं, अनासक्ति योग को कांग्रेस क्यों भूल गई है, तथा गांधी जी का ‘हिंद स्वराज‘ क्या 21वीं शताब्दी में प्रकृति, मनुष्य तथा विज्ञान का समन्वय इस कांग्रेस को नहीं दे सकता? अतः कोई हमें बताए कि ‘पैसे पेड़ों पर नहीं लगते‘ जैसे मुहावरे और 9 प्रतिशत विकास दर की धुन क्या महात्मा गांधी नहीं जानते थे? विडम्बना यही तो है कि महात्मा गांधी तब भी इस महान भारत को जानते थे लेकिन अपनी कांग्रेस आज भी आम आदमी के दिल और दिमाग को नहीं जानती है। (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं)