समीक्षक - मोहन मंगलम
वरिष्ठ कथाकार अंकुश्री का कहानी संग्रह चार-पांच महीने पहले मिल गया था, मगर कई चाहे-अनचाहे कारणों से पढ़ने का समय नहीं मिल पाता था। जब एक बार इसे हाथ में लिया, तो एक के बाद एक कहानी ने कुछ इस तरह अपना असर दिखाया कि फिर इसे छोड़ नहीं सका।
इस कहानी संग्रह को बिहार के साथ ही रांची और झारखंड के समाज को जानने-समझने के दस्तावेज के रूप में भी देखा जा सकता है। इस संग्रह की कहानियों को कोरी कल्पना नहीं कहा जा सकता, क्योंकि स्वयं लेखक अंकुश्री स्वीकार करते हैं, “बहुत कम कहानी ऐसी होती है, जिसका कोई अंश सत्य पर आधारित नहीं हो। कहानी तभी बनती है जब कोई बात हृदय को छू जाती है। वह बात स्वयं की हो सकती है या परिवार, समाज अथवा राष्ट्र की भी।”
संग्रह की कहानी ‘रिक्शावाला’ में चारित्रिक विशिष्टताओं से शून्य थोथी सहानुभूति दिखाने वालों का सच्चा चित्रण किया गया है। ‘सफर का साथी’ कहानी की नायिका के बहाने से पिता की परेशानी तथा आसपास का माहौल इस तरह हमारे सामने आता है, “वह जानती थी कि उसके पिता की जिंदगी की एकमात्र उपलब्धि परिवार की प्रतिष्ठा है। लेकिन परिवार की गरीबी थी, जो कभी खिड़की से झांकती थी तो कभी दरवाजे से। वह कभी पर्व-त्योहार के ऐन मौके पर मुखर हो जाती थी तो कभी दैनिक रोटी की समस्या लेकर सामने आ जाती थी। पड़ोसियों, संबंधियों और समाज से गरीबी की उस ताक-झांक को छिपाए रखना ही परिवार की प्रतिष्ठा थी।
‘कर्फ्यू’ कहानी में कर्फ्यू को महसूस करते हुए नायिका कहती है - “लग रहा था कि अभी-अभी शहर को दफनाया गया हो और उसकी आत्मा की शांति के लिए सभी मौन हो गये हों।” कहानी पढ़ते हुए आंखें तब बरबस ही नम हो उठती हैं, जब भूख से व्याकुल उसकी नन्ही बच्ची पूछती है, “मां, कर्फ्यू केवल शहर में ही क्यों लगता है, आदमी के पेट पर क्यों नहीं लगता? कितना अच्छा होता, यदि भूख पर ही कर्फ्यू लगा दिया जाए?”
‘बेकारी’ कहानी में बेरोजगारी की पीड़ा, अपनों की उपेक्षा के असरदार चित्रण के साथ ही सरकारी तंत्र की बखिया सलीके से उधेड़ी गई है। वहीं, समस्या का समाधान सुझाते हुए लेखक बताता है कि युवक का आत्मसम्मान जब जग जाता है तो वह खुद-ब-खुद रास्ता निकाल लेता है।
‘दामाद की तलाश’ कहानी में आधुनिकता और आदर्श के मुलम्मे में लिपटी दहेज की मांग को बखूबी उकेरा गया है। बेटे की चाहत में एक के बाद एक बेटी का जन्म और उसके कारण हुई परेशानियां बहुत कुछ सोचने पर विवश करती हैं।
‘पाकिटमार’ कहानी में भीड़ के मनोविज्ञान का चित्रण करते हुए अंकुश्री लिखते हैं, “व्यक्ति सोचकर काम करता है, लेकिन भीड़ के पास दिमाग नहीं होता। भीड़ में खड़ा हर व्यक्ति भीड़ की इकाई अवश्य होता है, मगर वहाँ खड़े लोगों का व्यवहार भीड़ का व्यवहार बन जाता है।” ‘स्वावलंबन’ कहानी में लेखक ने समाज को यह सार्थक संदेश देने का सफल प्रयास किया है कि लड़की का स्वाभिमान जब जग जाता है तो वह न केवल अपने पैरों पर खड़ी होने में सक्षम हो जाती है, बल्कि दहेज की समस्या का समाधान भी खुद ब खुद निकल आता है।
अब बात कहानी ‘रतनी’ की, जिसके नाम पर इस संग्रह का नाम रखा गया है। इस कहानी में गाँव का परिचय इन पंक्तियों में हमारे सामने आता है - “यहां शहर नहीं है न, गांव है। यहां प्रायः सभी लोगों का जीवन अपने लिए कम, दूसरे के लिए अधिक होता है, भले वह उसकी बुराई के लिए हो अथवा अच्छाई के लिए। वैसे भी अच्छाई के लिए किसके पास समय है। हां, बुराई के लिए लोग अपना नुकसान सहकर भी लगे रहते हैं। बुराई करने में लोगों को मजा भी खूब आता है।” इस कहानी में स्थानीय माहौल की अनुभूति के साथ ही मिशनरियों के आदिवासियों पर प्रभाव को समझने का अवसर प्राप्त होता है। साथ ही धर्मांतरण की विवशताएं और परिणाम किसी फिल्म की रील की तरह हमारे सामने आते हैं तथा परंपराओं को ढोने और उन्हें संरक्षित रखने वाले आदिवासियों के संघर्षमय जीवन-सौंदर्य का साक्षात्कार भी होता है।
अंत में एक जरूरी बात कहने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। इतनी अच्छी कहानियां, इतना सार्थक संदेश, लेकिन वर्तनी में इतनी अशुद्धियां, ऐसे लगता है जैसे घुटन भरे माहौल में शब्द मन ही मन कराह रहे हों। आशा है, लेखक और प्रकाशक इन शब्दों की कसक महसूस कर सकेंगे और जब इस कहानी संग्रह का दूसरा संस्करण प्रकाशित होगा तो वर्तनी की त्रुटियों को अवश्य ही दूर कर दिया जाएगा।
पुस्तक - रतनी
प्रकाशक: सर्वभाषा प्रकाशन
लेखक - अंकुश्री
मूल्य - 300 रुपये