साहित्यिक गतिविधियों में अग्रगण्य संस्था 'नव उन्नयन साहित्यिक सोसाइटी’, नई दिल्ली के द्वारा संचालित ऑनलाइन व्याख्यान माला के अंतर्गत आभासी पटल पर 'स्वतंत्र भारत में हिंदी कार्यान्वयन की अनिवार्यता' विषय पर महत्त्वपूर्ण संगोष्ठी का आयोजन किया गया। अत्यंत प्रासंगिक एवं ज्वलंत विषय के मुख्य वक्ता प्रोफेसर पूरनचंद टंडन (सेवानिवृत्त वरिष्ठ प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय एवं प्रतिष्ठित समालोचक) ने बहुत ही तथ्यात्मक बिंदुओं को समक्ष रखा। इस कार्यक्रम में लगभग 65 प्रतिभागियों की सक्रिय उपस्थिति रही। कार्यक्रम का संचालन करते हुए प्रोफेसर हरीश कुमार सेठी ( इंदिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय) ने प्रो. टंडन के औपचारिक परिचय के साथ कार्यक्रम की शुरुआत की। उन्होंने सभी शिक्षकों, शोधार्थियों एवं साहित्य प्रेमियों का सादर अभिवादन करने के बाद संस्था के गठन, उद्देश्य एवं साहित्यिक गतिविधियों से परिचित कराया। प्रो.टंडन ने वक्तव्य के प्रारंभ में हिंदी के प्रयोग एवं अनुप्रयोग को बढ़ाने हेतु भारतीय संविधान की ऑनलाइन प्रति सभी प्रतिभागियों को उपलब्ध करवाई। प्रयोजनमूलक तथा कार्यालयी हिंदी के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उन्होंने हिंदी कार्यान्वयन के लिए अनुवाद की महत्ता पर जोर दिया और बताया कि अनूदित कृतियों ने हिंदी के अनुप्रयोगों को समृद्ध किया है।
आगे वक्तव्य में उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता के बाद हिंदी न केवल साहित्य की भाषा रही, बल्कि राष्ट्र के प्रशासनिक और सामाजिक जीवन की अनिवार्य भाषा बन गई; क्योंकि हिंदी आमजन की भाषा रही है, इसलिए शासन और जनता के बीच सेतु का कार्य करती है। उनके अनुसार लोकतंत्र की सफलता तभी संभव है, जब शासन की भाषा जनता की समझ में आने वाली हो, और यह भूमिका हिंदी प्रभावी रूप से निभाती है। प्रो. टंडन की दृष्टि में हिंदी राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक चेतना को मजबूत करने का सशक्त माध्यम है। निःसंदेह संविधान द्वारा हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने से इसके कार्य-व्यवहार में वृद्धि हुई है, परंतु कुछ समस्याएँ आज भी विद्यमान हैं, उनका समाधान करना जरूरी है। विकल्प के रूप में उन्होंने बताया कि हिंदी के अनुप्रयोग का ज्ञान केवल हिंदी के विद्यार्थियों को ही न मिले, बल्कि दूसरे अनुशासनों से जुड़े विद्यार्थियों को भी मिले।
आगे उन्होंने कहा कि किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र की पहचान उसकी भाषा होती है। स्वतंत्रता के पश्चात् देश के सामने यह चुनौती थी कि किस भाषा में देश चलाया जाए, विचार विमर्श के बाद एक सर्वेक्षण हुआ और सर्वेक्षण में यह पाया गया कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक संवाद की भाषा हिंदी है। यद्यपि 14 सितंबर 1949 को राजभाषा के रूप में संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी को स्वीकार किया गया, परंतु पत्रों, प्रयुक्तियों, शब्दावलियों के अभाव में हिंदी कार्यान्वयन की समस्या उत्पन्न होने की आशंका के कारण संविधान लागू होने से 15 वर्षों तक अंग्रेज़ी भाषा में कार्य करते रहने का समय दिया गया, परंतु ये 15 वर्ष आज तक समाप्त नहीं हुए।
आगे उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी भारतीय भाषाओं में शिक्षा देने पर बल दिया गया है, अंत: हिंदी भाषा-भाषियों और हिंदी इतर भाषा- भाषियों को सहभागितापूर्ण प्रयोग करने की आवश्यकता आज भी बनी हुई है। हालांकि इस दिशा में वैज्ञानिक तकनीकी शब्दावली आयोग ने हिंदी के कार्यान्वयन को सुविधाजनक बनाया, अनेक शब्दकोशों और मानक शब्दावलियों का निर्माण किया, परंतु फिर भी हिंदी भाषा में कार्यान्वयन की कई चुनौतियाँ रहीं। इनके समाधान के रूप में हिंदी में कार्यान्वयन के लिए प्रत्येक राज्य में अनुवाद अकादमी बनानी चाहिए, जिससे केंद्र और राज्य के मध्य समन्वय हो सके और साहित्य संरक्षण किया जा सके। प्रो. टंडन ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में यूनिवर्सिटी ऑफ़ ट्रांसलेशन बनाने की योजना को सार्थक पहल माना और कई भारतीय भाषाओं के घटते आँकड़ों के प्रति गंभीर चिंता व्यक्त की, क्योंकि अनुप्रयोग और संरक्षण के अभाव में भविष्य में भी कई भाषाएँ विलुप्त होंगी।
एक और विकल्प उन्होंने दिया कि भाषा के चारों कौशलों को बच्चों में विकसित करना अति आवश्यक है। अंग्रेज़ी , फ्रेंच, जर्मन पढ़ने से कोई समस्या नहीं है, लेकिन पहले अपनी भाषा में सिद्धहस्त होना अति आवश्यक है और हम शिक्षकों की जिम्मेदारी है कि हिंदी में रोजगार के अवसरों को विद्यार्थियों को बताएँ और उन्हें जागरूक करें। हिंदी का प्रयोग प्रशासन, शिक्षा और संचार में बढ़ने से आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान की भावना विकसित होती है। आगे उन्होंने कहा कि स्वतंत्र भारत में हिंदी का कार्य-व्यवहार राष्ट्र की पहचान और सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक है। कार्यक्रम का समापन रामलाल आनंद कॉलेज के सहायक आचार्य, डॉ रोशन लाल मीणा ने धन्यवाद ज्ञापन से किया।
रिपोर्ट प्रस्तुतकर्ता
प्रो. रवि शर्मा ‘मधुप’, डॉ. ममता चौरसिया, डॉ. साक्षी जोशी, डॉ. प्रीति मिश्रा एवं अपूर्वा
