दिल्ली-एनसीआर आज उस दौर से गुज़र रहा है जहाँ हवा की गुणवत्ता केवल पर्यावरण की समस्या नहीं रही, बल्कि सीधे जीवन और मृत्यु से जुड़ा मुद्दा बन चुकी है। दुनिया के जिन शहरों में वायु प्रदूषण सबसे गंभीर माना जाता है, उनमें दिल्ली लगातार शीर्ष पर रही है। सर्दियों के महीनों में जब शहर धुँध और धुएँ से ढक जाता है, तब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि खराब हवा का हमारे जीवन पर असली प्रभाव क्या है। पिछले कुछ वर्षों में जारी रिपोर्टों ने इस प्रश्न का उत्तर काफी स्पष्ट कर दिया है, प्रदूषण लोगों की आयु घटा रहा है और मौतों की संख्या बढ़ा रहा है। इन आँकड़ों को देखने के बाद यह समझना कठिन नहीं कि दिल्ली-एनसीआर का प्रदूषण अब एक अस्थायी नहीं, बल्कि स्थायी स्वास्थ्य संकट बन चुका है। पिछले दस वर्षों का स्वास्थ्य रुझान साफ बताता है कि दिल्ली-एनसीआर की हवा ने लोगों के जीवन पर गहरा असर डाला है। 2018 में 15 हजार से अधिक और 2023 में 17 हजार से अधिक मौतें, ये संख्याएँ केवल सांख्यिकीय तथ्य नहीं, बल्कि हर परिवार की सुरक्षा और भविष्य से जुड़ा हुआ प्रश्न हैं। 2024 का आँकड़ा भले अभी उपलब्ध न हो, पर 2023 तक की तस्वीर ही यह जताने के लिए काफी है कि दिल्ली की हवा अब केवल एक मौसम समस्या नहीं, बल्कि एक लंबी और चुनौतीपूर्ण लड़ाई बन चुकी है।
2023ः मौतों के आँकड़े ने दी गंभीर चेतावनी
दिल्ली में प्रदूषण से होने वाली मौतों का सबसे ताज़ा और भरोसेमंद आँकड़ा वर्ष 2023 का है। वैश्विक संस्था इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूवेशन की रिपोर्ट बताती है कि 2023 में दिल्ली में 17,188 मौतें वायु प्रदूषण से संबंधित पाई गईं। इसका अर्थ है कि शहर में हुई कुल मौतों में से लगभग 15 प्रतिशत, यानी लगभग हर सात में से एक मौत, खराब हवा से जुड़ी रही। यह संख्या न केवल दिल्ली के लिए, बल्कि पूरे देश के स्वास्थ्य ढाँचे के लिए चेतावनी है, क्योंकि यह दिखाती है कि हवा की गुणवत्ता किस हद तक लोगों की जीवन-रेखा को प्रभावित कर चुकी है। विशेषज्ञों का कहना है, ये मौतें अचानक नहीं होतीं। प्रदूषण का असर धीरे-धीरे शरीर पर जमा होता है। लंबे समय तक जहरीली हवा में रहने से फेफड़ों, हृदय और रक्त संचार प्रणाली पर गहरा असर पड़ता है। अस्पतालों में श्वसन और हृदय रोगों से जुड़े मरीजों की संख्या सर्दियों में बढ़ जाती है और कई मामलों में स्थिति इतनी गंभीर हो जाती है कि लोग इलाज के दौरान दम तोड़ देते हैं। 2023 के रिकॉर्ड इस बढ़ते संकट का सबसे स्पष्ट प्रमाण बनकर सामने आए हैं।
2014 से 2023ः एक दशक जो हवा की बिगड़ती हालत का गवाह बना
यदि पिछले दस वर्षों के रुझानों का अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट है कि समस्या साल-दर-साल बढ़ती गई है। 2014 से ही दिल्ली का पीएम 2.5 स्तर सुरक्षित सीमा से कई गुना ऊपर दर्ज होता आया है। यह दशक मानो प्रदूषण के स्थायी विस्तार का प्रमाण बन गया है। 2014-2017 के बीच कई शोध संस्थानों ने हजारों मौतों का अनुमान लगाना शुरू किया था। लेकिन 2018 से यह संख्या और बढ़ने लगी। 2018 में जारी एक विश्लेषण के अनुसार दिल्ली में प्रदूषण-संबंधी मौतों का अनुमान लगभग 15,700 था। यद्यपि यह संख्या अलग-अलग अध्ययनों में थोड़ी भिन्न दिखाई देती है, पर समग्र रुझान यही बताता है कि मौतों का बोझ उसी समय से ऊँचे स्तर पर पहुँचने लगा था। 2019 से 2021 तक यह स्थिति लगभग उसी चिंताजनक दायरे में बनी रही। 2020 में कोरोना-लॉकडाउन के दौरान कुछ महीनों के लिए हवा साफ दिखाई दी, लेकिन स्वास्थ्य से जुड़ा वार्षिक बोझ उल्लेखनीय रूप से कम नहीं हुआ। 2021 और 2022 में भी मौतों का अनुमान 15-16 हजार के आसपास ही रहा। 2023 इन सभी वर्षों में सबसे गंभीर रहा, जब मौतों का आंकड़ा 17,188 तक पहुँच गया। इससे यह साफ है कि पिछले दस वर्षों में समस्या रुकने के बजाय गहराती गई है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि दिल्ली की जनसंख्या, यातायात दबाव और मौसम संबंधी स्थितियों ने इस दौरान कोई बड़ी राहत नहीं दी, और सर्दियों में प्रदूषण का स्तर कई बार गंभीर श्रेणी से भी आगे निकल गया। 2024 में मौतों की संख्या कितनी रही। इसका सीधा उत्तर यह है कि 2024 का आधिकारिक मृत्यु-आँकड़ा अभी प्रकाशित नहीं हुआ है। स्वास्थ्य बोझ जैसी रिपोर्टें हमेशा एक वर्ष के अंतर से जारी होती हैं। यह प्रक्रिया इसलिए समय लेती है क्योंकि इसमें व्यापक डेटा जैसे अस्पताल रिकॉर्ड, स्वास्थ्य सर्वेक्षण, जनसंख्या परिवर्तन और प्रदूषण स्तर के वैज्ञानिक मॉडल सबको मिलाकर विश्लेषण किया जाता है।
विशेषज्ञों की राय
मौतों के बढ़ते ग्राफ़ का क्या मतलब-देश और विदेश के कई स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस बढ़ते रुझान को बेहद चिंताजनक मानते हैं। उनके विचारों में कुछ महत्वपूर्ण बातें स्पष्ट रूप से सामने आती हैं। पहली बात, दिल्ली अब स्थायी स्वास्थ्य संकट के दौर में है। विशेषज्ञ बताते हैं कि लगातार खराब हवा शरीर की प्रतिरोधक क्षमता पर गहरा असर डालती है। प्रदूषण का प्रभाव केवल सांस तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे शरीर के कार्यों को प्रभावित करता है। इसलिए मौतों का बढ़ना स्वाभाविक परिणाम माना जा रहा है। दूसरी बात, बच्चों पर प्रदूषण का असर जीवन भर रहता है। कई डॉक्टर यह बताते हैं कि जिन बच्चों का बचपन अत्यधिक प्रदूषण वाली हवा में बीतता है, उनके फेफड़ों की क्षमता वयस्क होने पर भी पूरी नहीं बन पाती। इससे वे आगे चलकर कई बीमारियों के अधिक शिकार बनते हैं। तीसरी बात, मौतों का अनुमान वैज्ञानिक रूप से स्वीकार्य पद्धति है। अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि मृत्यु प्रमाण पत्र पर तो “प्रदूषण” नहीं लिखा होता, फिर ये आँकड़े कैसे तय होते हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि दुनिया भर में स्वास्थ्य शोध में यह मान्य तरीका है कि बड़े पैमाने पर प्रदूषण स्तर और बीमारियों के बीच संबंध को मॉडलिंग द्वारा समझा जाता है। दिल्ली के मामले में यह संबंध अत्यंत मजबूत पाया गया है। चौथी बात, 2023 का आँकड़ा आने वाले खतरे का संकेत है। जब किसी शहर में एक वर्ष में 17 हजार से अधिक मौतें प्रदूषण से जुड़ी हों, तो यह शहर की जीवन-गुणवत्ता पर सीधा सवाल है। विशेषज्ञ मानते हैं कि यह संख्या आने वाले वर्षों में बढ़ भी सकती है, यदि उपयुक्त कदम नहीं उठाए गए।
लेखक
डॉ. चेतन आनंद
(कवि-पत्रकार)
