डॉ. चेतन आनंद
(कवि, पत्रकार एवं विश्लेषक)
भारत में त्योहार केवल पूजा-अर्चना का नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था के स्पंदन का भी प्रतीक हैं। दीपावली, नवरात्र, ईद या क्रिसमस, इन पर्वों के दौरान बाजारों की चमक देश की आर्थिक सेहत को दर्शाती है। हर त्योहारी मौसम में उपभोग बढ़ता है और यही उपभोग देश की जीडीपी में नई ऊर्जा भरता है। इसीलिए अर्थशास्त्री मानते हैं कि भारत का “फेस्टिव सीज़न” दरअसल उपभोक्ता अर्थव्यवस्था का इंजन बन चुका है।
पिछले दशक में बढ़ी चमक
पिछले दस वर्षों में भारतीयों की क्रय-शक्ति में उल्लेखनीय बदलाव आया है। विश्व बैंक के अनुसार, 2014 से 2024 तक भारत का प्रति व्यक्ति जीडीपी औसतन 9 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ा। किंतु मुद्रास्फीति को घटाने पर वास्तविक वृद्धि दर 3 प्रतिशत-3.5 प्रतिशत के आसपास रही। श्रम-अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ और संतोष मेहरोत्रा लिखते हैं कि “आर्थिक विकास दर ऊँची है, लेकिन वास्तविक मजदूरी ठहरी हुई है। नतीजा यह कि क्रय-शक्ति का लाभ असमान रूप से विभाजित है।” ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी लगभग स्थिर रही, जबकि शहरी वर्गों में आय व उपभोग दोनों बढ़े। बैंक ऑफ बड़ौदा की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2024 में केवल दीपावली सीज़न में 1.85 लाख करोड़ रुपये की खरीदारी हुई, जो पिछले वर्ष से लगभग 20 प्रतिशत अधिक थी।
त्योहारों का आर्थिक जादू
त्योहारों का समय भारत की सबसे बड़ी उपभोग लहर लेकर आता है। बैंक ऑफ बड़ौदा व आईबीईएफ की संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार, 2025 के उत्सव और विवाह सीज़न में भारत में कुल खर्च 12 से 14 लाख करोड़ रुपये तक पहुँचने का अनुमान है। ई-कॉमर्स इस उछाल का प्रमुख कारण बन गया है। एमेजॉन, फ्लिपकार्ट और मीशो जैसे प्लेटफॉर्म्स त्योहारी बिक्री में अरबों डॉलर का कारोबार कर रहे हैं। यह परंपरागत बाजारों के साथ-साथ डिजिटल भारत की नई आर्थिक परंपरा भी बन चुका है। पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ. अरविंद सुब्रमण्यम के शब्दों में-“भारत का उपभोक्ता अब ज़रूरत नहीं, आकांक्षा पर खर्च करता है। त्योहार उस आकांक्षा का आर्थिक उत्सव हैं।”
किसके पास बढ़ी है खरीद शक्ति?
सवाल यह भी अहम है कि क्या यह समृद्धि सभी को समान रूप से मिली है? भारत असमानता रिपोर्ट 2023 के अनुसार, पिछले दशक में शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी की आय 60 प्रतिशत बढ़ी, जबकि निचले 40 प्रतिशत वर्ग की वृद्धि 20 प्रतिशत से भी कम रही। स्पष्ट है, त्योहारों पर बढ़ती खरीद का अधिकांश हिस्सा मध्यम और उच्च आय वर्गों से आता है। ग्रामीण भारत में खर्च की रफ़्तार धीमी है, हालांकि सरकारी योजनाएँ, जैसे प्रधानमंत्री किसान निधि या मनरेगा उपभोग को स्थिर बनाए रखे हुए हैं।
2035 की ओरः भविष्य की झलक
अर्थशास्त्रियों के अनुसार, यदि भारत 6-7 प्रतिशत वार्षिक आर्थिक वृद्धि बनाए रखे तो अगले 10 वर्षों में प्रति व्यक्ति वास्तविक क्रय-शक्ति 50 प्रतिशत से 80 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। इसका सीधा असर त्योहारों के बाजार पर पड़ेगा। दीपावली जैसे प्रमुख पर्वों का वार्षिक खर्च, जो आज 1.85 लाख करोड़ रुपये है, 2034 तक बढ़कर 3 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच सकता है। यदि पूरे विवाह और त्योहार सीज़न का कुल बाजार 13 लाख करोड़ रुपये है, तो अगले दशक में यह बढ़कर 22-23 लाख करोड़ रुपये तक पहुँचने का अनुमान है। डॉ. रघुराम राजन का मानना है-“भारत की उपभोग-वृद्धि तभी स्थायी होगी जब रोजगार और आय-वृद्धि समानांतर चलें। यही वह राह है जो भारत को विश्व का सबसे बड़ा ‘फेस्टिव मार्केट’ बना सकती है।”
चुनौतियाँ और सावधानियाँ
1.मुद्रास्फीति नियंत्रणः यदि महँगाई बढ़ी, तो वास्तविक लाभ घट जाएगा।
2.रोजगार-गुणवत्ताः अस्थायी नौकरियों के स्थान पर स्थायी और कौशल-आधारित रोजगार आवश्यक हैं।
3.ग्रामीण समावेशनः यदि कृषि आय में वृद्धि नहीं हुई, तो आधी आबादी त्योहार-खर्च की दौड़ में पीछे रह जाएगी।
4.आय-वितरणः अमीर-गरीब अंतर घटाने के बिना उपभोग स्थायित्व नहीं पा सकेगा।
नीतिगत दिशा
भारतीय अर्थशास्त्री सुझाव देते हैं कि अब विकास केवल जीडीपी केंद्रित नहीं, बल्कि वेतन और उपभोग-केंद्रित होना चाहिए। सरकार और उद्योग को मिलकर तीन मोर्चों पर काम करना होगा, वास्तविक मजदूरी में वृद्धि और न्यूनतम वेतन का सख्त क्रियान्वयन। कौशल विकास कार्यक्रमों का ग्रामीण व अर्धशहरी क्षेत्रों तक विस्तार। डिजिटल वित्तीय सुलभता ताकि छोटे शहरों में भी ई-कॉमर्स और क्रेडिट पहुँच सके।
हर घर की आर्थिक दीपावली
भारत की बढ़ती खरीद शक्ति यह संकेत दे रही है कि उपभोग अब हमारे विकास की धुरी बन चुका है। पिछले दशक की तरह आने वाले दस वर्ष भी “उत्सव अर्थशास्त्र’’ को नई ऊँचाइयाँ देंगे। परंतु यह तभी सार्थक होगा जब विकास सबके लिए होगा। जब ग्रामीण और शहरी, अमीर और मध्यम, सभी वर्गों के घरों में समान रूप से रौशनी पहुँचे। क्योंकि अंततः “खुशहाल अर्थव्यवस्था वही है, जहाँ हर घर की दीपावली जगमगाए।”