- ओमप्रकाश प्रजापति
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भारत के सबसे बड़े सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी संगठनों में से एक है। इसकी स्थापना 27 सितंबर 1925 को नागपुर (महाराष्ट्र) में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। 2025 का वर्ष इस संगठन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अपना 100वां स्थापना दिवस मना रहा है। यह शताब्दी वर्ष केवल एक संगठन की उपलब्धियों का उत्सव नहीं, बल्कि भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना के सौ वर्षों की यात्रा का भी प्रतीक है। आरएसएस का जन्म उस समय हुआ जब भारत स्वतंत्रता संग्राम के दौर से गुजर रहा था। विदेशी शासन, सामाजिक बिखराव, जातिगत भेदभाव और राष्ट्रवाद की कमजोर होती भावना देश के लिए चिंता का विषय थे। डॉ. हेडगेवार ने महसूस किया कि केवल राजनीतिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है; समाज को आत्मबल, एकता और राष्ट्रभक्ति के संस्कारों से ओतप्रोत करना भी जरूरी है। उनका उद्देश्य एक ऐसा संगठन बनाना था जो जाति, धर्म और भाषा से ऊपर उठकर राष्ट्र को सर्वोपरि माने।
संघ की शाखाओं के माध्यम से अनुशासन, चरित्र निर्माण, सेवा और राष्ट्रप्रेम की भावना को विकसित करने का प्रयास किया गया।
पिछले 100 वर्षों में आरएसएस ने केवल एक संगठन के रूप में नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में विकास किया। यद्यपि आरएसएस प्रत्यक्ष रूप से स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा नहीं बना, परंतु इसके स्वयंसेवकों ने समाज को जागरूक करने और स्वदेशी आंदोलन को बल देने में सक्रिय भूमिका निभाई। जातिगत भेदभाव मिटाने, शिक्षा प्रसार, सेवा कार्यों और प्राकृतिक आपदाओं में राहत कार्य में संघ सदैव अग्रणी रहा है। संघ ने अपने विचारों से कई सामाजिक- सांस्कृतिक और राजनीतिक संगठनों को जन्म दिया, जैसे भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद, विश्व हिंदू परिषद, सेवा भारती, वनवासी कल्याण आश्रम आदि। भारतीय जनसंघ और आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जैसे राजनीतिक दलों की वैचारिक जड़ें आरएसएस से जुड़ी हुई हैं। आज केंद्र और कई राज्यों में भाजपा के सशक्त शासन में संघ की प्रेरणा स्पष्ट दिखाई देती है।
1925 में कुछ स्वयंसेवकों से शुरू हुआ यह संगठन आज भारत के हर राज्य और हजारों गांवों में फैला है। विदेशों में भी आरएसएस की प्रेरणा से कई शाखाएँ कार्य कर रही हैं। आरएसएस से जुड़े संगठनों ने शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, आपदा राहत और पर्यावरण संरक्षण जैसे क्षेत्रों में व्यापक कार्य किया है। भारतीय संस्कृति, परंपरा और मूल्यों को पुनर्जीवित करने में संघ की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। आरएसएस की 100 साल की यात्रा केवल प्रशंसा तक सीमित नहीं रही। इसे अक्सर हिंदुत्व की राजनीति को बढ़ावा देने का आरोप झेलना पड़ा। 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध भी लगा, हालांकि बाद में कोई प्रत्यक्ष दोष सिद्ध नहीं हुआ। समय-समय पर अल्पसंख्यक समुदायों के साथ संबंधों को लेकर भी विवाद उठते रहे। फिर भी संघ ने स्वयं को केवल सेवा और राष्ट्रहित के कार्यों के आधार पर खड़ा करने का प्रयास जारी रखा।
2025 का शताब्दी वर्ष आरएसएस के लिए एक आत्ममंथन और नए संकल्प का अवसर है। संघ अब “आत्मनिर्भर भारत” और “वसुधैव कुटुम्बकम” की भावना को बढ़ावा देने पर जोर दे रहा है। देश की युवा पीढ़ी को भारतीय संस्कृति और राष्ट्र निर्माण में सक्रिय भागीदारी के लिए प्रेरित करने की योजनाएँ बनाई जा रही हैं। शताब्दी वर्ष में विश्वभर में भारतीय मूल्यों को प्रचारित करने के लिए विशेष कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं। आरएसएस का सौ वर्षीय अनुभव बताता है कि संगठन ने केवल परंपरा को संरक्षित नहीं किया, बल्कि बदलते समय के साथ खुद को ढालने का भी प्रयास किया है। डिजिटल युग में तकनीक का उपयोग, पर्यावरण संरक्षण, महिला सहभागिता और ग्रामीण विकास जैसे क्षेत्रों में नए अभियान इसकी भविष्य दृष्टि को दर्शाते हैं।आरएसएस का 100वां स्थापना दिवस केवल एक संगठन के इतिहास का उत्सव नहीं, बल्कि उस विचारधारा का प्रतीक है जिसने भारतीय समाज को एकता, सेवा और आत्मगौरव का संदेश दिया। इस अवसर पर संघ के स्वयंसेवकों और समर्थकों के लिए यह समय है कि वे पिछले सौ वर्षों की उपलब्धियों से प्रेरणा लें और आने वाले सौ वर्षों के लिए नए लक्ष्य निर्धारित करें। भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण में आरएसएस की भूमिका निर्विवाद है। शताब्दी वर्ष में यह संगठन भारतीयता के संदेश को और व्यापक बनाते हुए राष्ट्र निर्माण की अपनी यात्रा को नए आयाम देने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देता है।