-ओमप्रकाश प्रजापति
भारत का लोकतांत्रिक ढांचा जातियों, समुदायों और वर्गों की भागीदारी पर आधारित है। हर चुनाव में विभिन्न समाज अपने-अपने मुद्दों को लेकर सक्रिय रहते हैं, लेकिन हाल के दिनों में प्रजापति समाज ने जो स्वर बुलंद किया है- “अगर टिकट नहीं मिलेगा, तो वोट भी नहीं”- वह केवल एक नारा नहीं, बल्कि राजनीतिक परिदृश्य को झकझोरने वाला संदेश है। यह चेतावनी बताती है कि अब यह समाज केवल मतदाता की भूमिका में नहीं रहना चाहता, बल्कि सत्ता- साझेदारी और नीति-निर्माण में भी बराबर की हिस्सेदारी चाहता है।
प्रजापति समाज परंपरागत रूप से कुम्हार, शिल्पकार और माटी से जुड़े व्यवसायों से पहचाना जाता है। प्रजापति समाज भारत के कई राज्यों-उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और उत्तराखंड में अच्छी-खासी जनसंख्या रखता है। शिक्षा और रोजगार के अवसरों में लगातार सुधार के बावजूद राजनीति में प्रजापति समाज की हिस्सेदारी सीमित रही है। समाज का बड़ा हिस्सा लंबे समय तक केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल होता रहा, लेकिन सत्ता के असली निर्णयों में इनकी उपस्थिति न्यूनतम रही।
पिछले कुछ वर्षों में विधानसभा और लोकसभा चुनावों के दौरान प्रजापति समाज ने कई बार अपनी उपेक्षा पर नाराज़गी जताई।
राजनीतिक दल प्रजापति समाज के मतों को तो महत्त्व देते हैं, लेकिन टिकट देने के मामले में अक्सर अन्य बड़े वोट बैंक को प्राथमिकता दी जाती है।
समाज के नेताओं का कहना है कि जब उनकी जनसंख्या इतनी मजबूत है कि जीत- हार तय कर सकती है, तो उन्हें उम्मीदवार बनाने से क्यों वंचित किया जाए। इसी असंतोष ने अब एक सशक्त नारे का रूप ले लिया है, “टिकट नहीं तो वोट नहीं”, जो चुनावी दलों के लिए साफ संदेश है कि केवल वोट लेने की राजनीति अब नहीं चलेगी। पार्टियों पर दबाव- इस चेतावनी से राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों दलों पर दबाव बढ़ा है कि वे प्रजापति समाज को टिकट वितरण में उचित प्रतिनिधित्व दें। यदि यह समाज सामूहिक निर्णय लेता है, तो कई सीटों पर चुनावी समीकरण पूरी तरह बदल सकते हैं। युवा प्रजापति नेता अब अपने समाज को संगठित कर खुद को विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं। इससे पारंपरिक राजनीति को चुनौती मिल रही है। केवल चुनाव के समय याद करने की बजाय नीति-निर्माण में भागीदारी। सरकारी योजनाओं, आरक्षण, उद्यमिता व स्किल डेवलपमेंट में विशेष ध्यान। प्रजापति शिल्प, कला और परंपरा के संरक्षण के लिए ठोस कदम।
कुछ लोग इसे जातिगत राजनीति मान सकते हैं, पर गहराई से देखें तो यह लोकतंत्र की परिपक्वता का संकेत है। जब कोई समाज अपने अधिकारों के प्रति सजग होता है, तो राजनीतिक दलों को भी पारदर्शिता और न्याय के साथ काम करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। यह प्रक्रिया सभी वंचित समुदायों के लिए प्रेरणा बन सकती है। “टिकट नहीं तो वोट नहीं” का नारा प्रजापति समाज की जागरूकता और आत्मसम्मान का प्रतीक है। यह केवल एक चुनावी रणनीति नहीं, बल्कि उस ऐतिहासिक बदलाव की आहट है जिसमें अब हर समाज सत्ता में अपनी समान हिस्सेदारी चाहता है। यदि राजनीतिक दल इस संदेश को गंभीरता से लेते हैं, तो यह भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को और अधिक सहभागी, न्यायपूर्ण और प्रतिनिधिक बना सकता है।
