● डॉ. अर्पण जैन 'अविचल'
लताएँ लहलहा रही हैं, चिड़ियों का कलरव हो रहा है, वृक्ष हवाओं से आलिंगन कर रहे हैं, सरयू का कल-कल बहता जल संगीत की स्वर लहरियों को उत्पन करते हुए रामघाट की सीढ़ियों से टकरा रहा है, मयूर नाच रहे हैं, पगडंडियाँ अधीर हो रही हैं, अयोध्या की संकरी गलियाँ भी चौड़ी नज़र आ रही हैं, दूर हनुमतगढ़ी में बैठे बजरंगबली के भजन कानों में सुनाई दे रहे हैं, यक्ष-यक्षिणियों का उत्सव गान गुंजायमान हो रहा है, तीनों माताएँ बधाइयाँ गा रही हैं, दसों दिशाओं और चौदह भुवनों से राघवेंद्र का नाम उच्चारित हो रहा है, यही सब दृश्य अब अवध में व्याप्त हैं, क्योंकि अवधेश का महल प्रवेश होने वाला है।
नियति ने तय किया कि सोमवार को 22 जनवरी 2024 के शुभदिन सैंकड़ो वर्षों से राघवेंद्र की जन्मभूमि पर भजन-कीर्तन के साथ मन्दिर निर्माण के लिए चल रहे संघर्ष को अनंत काल के लिए समाप्त होना होगा, क्योंकि मंदिर के गर्भगृह में रामलला की प्रतिमा की प्राणप्रतिष्ठा होने जा रही है।
जन्मभूमि पर भजन–कीर्तन से लेकर मंदिर निर्माण तक लाखों समिधाओं का समर्पण, बलिदान और संघर्ष भी अयोध्या में विद्यमान है, उसी तरह सरयू जल का कण-कण, कारसेवकों का प्रत्येक रक्त कण, माटी का बनता धर्म रण इस बात का साक्षी है कि अवधेश के धाम अयोध्या ने सैंकड़ो वर्षों का अनवरत तप देखा है।
अथर्ववेद में पहली बार अयोध्या का वर्णन है, वहाँ से आरंभ हुई इस यात्रा को 1862-63 के ऑर्केलजिकल सर्वे के अनुसार बुद्ध के समय में सुंदर नगरी के रूप में अंकित किया गया था। पुराणों के अनुसार सूर्यवंश में कुल 120 राजाओं का राज-काज चिह्नित है, उनमें से 63वें राजा दशरथ रहे और 64वें राजा राघवेंद्र।
कुशान वंश के राजा कनिष्क ने अयोध्या के मंदिरों का पुनः निर्माण करवाया तो गुप्त वंश के राजा स्कन्दगुप्त ने 454 से 467 ईसवी तक अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया। इसके बाद साल 1192 में मोहम्मद गौरी ने दिल्ली फतेह कर ली और अयोध्या भी गौरी के अधीन हो गया। गौरी ने पूरी सल्तनत में मंदिरों के निर्माण पर रोक लगा दी, अयोध्या अछूती कैसे रहती! यहाँ भी मंदिर निर्माण पर पाबंदी थी। 1526 ईसवी में शुरू हुए मुगल शासन ने वातावरण बदल दिया। राय बहादुर लाला सीताराम की पुस्तक 'अयोध्या का इतिहास' में लिखा है कि 1528 ईसवी में बाबर के कहने पर उनके सिपहसालार मीर बाकी ने अयोध्या में मंदिर तोड़कर मस्ज़िद बनाई। हालांकि बाबरनामा से लेकर आईना–ए–अकबर तक किसी किताब में यह ज़िक्र नहीं मिलता।
इस घटना के लगभग 300 साल बाद 1855 ई. में अयोध्या में हिन्दू-मुस्लिम विवाद होने शुरू हुए। 1855 ई. में ही मुस्लिम पक्ष में हनुमानगढ़ी पर दावा किया और उसके बाद 1858 ई. में फिर बाबरी मस्ज़िद में हिन्दू पक्ष में हवन-पूजन किया। इसके बाद 1885 ई. में निर्मोही अखाड़े के महंत रघुवरदास जी न्यायालय पहुँचे। उन्होंने न्यायालय से राम चबूतरे पर भजन करने की अनुमति चाही। यह याचिका खारिज कर दी गई, पर न्यायमूर्ति इस बात पर सहमत दिखे कि मंदिर तोड़कर मस्ज़िद बनाई गई है तो ग़लत है।
राममंदिर पर राजनीति की शुरुआत भारत की आज़ादी के बाद शुरू हुई। अयोध्या के नाम पर देश के राजनीतिक दलों ने जमकर सियासी रोटियाँ सेंकी हैं। भाजपा ने भले ही 1989 में राम मंदिर को अपने एजेंडे में शामिल किया हो, लेकिन कांग्रेस ने तो आज़ादी के एक साल के बाद ही 1948 में अयोध्या के उपचुनाव में राम के नाम पर वोट ही नहीं माँगा था बल्कि हार्डकोर हिंदुत्व का कार्ड भी खेला था।
वर्ष 1934 में कांग्रेस के अंदर राम मनोहर लोहिया और आचार्य नरेंद्रदेव जैसे समाजवादी नेताओं का एक धड़ा भी बन गया था। देश के आज़ादी के कुछ दिनों बाद ही आचार्य नरेंद्रदेव ने अपने सात समर्थक विधायकों के साथ यूपी विधानसभा से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस से अलग होकर मार्च 1948 में सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया। तब आचार्य नरेंद्रदेव ने फैज़ाबाद यानी अयोध्या को अपनी राजनीतिक कर्मभूमि बनाया था। वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह ने अपनी किताब 'अयोध्या: रामजन्मभूमि-बाबरी-मस्ज़िद का सच' में लिखा है कि 1948 के फैज़ाबाद उपचुनाव में सोशलिस्ट पार्टी से आचार्य नरेंद्रदेव मैदान में थे। ऐसे में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने आचार्य नरेंद्र देव के ख़िलाफ़ एक बड़े हिंदू संत बाबा राघव दास को कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर उतारा था।
बाबा राघव दास वैसे तो अपने को गांधीवादी और विनोबा का शिष्य बताते थे, लेकिन फैज़ाबाद उपचुनाव में कांग्रेस ने उन्हें हिंदुत्व के प्रतीक के रूप में स्थापित करने का प्रयत्न किया था। कांग्रेस नेता गोविंद वल्लभ पंत ने अपने भाषणों में बार-बार कहा था कि आचार्य नरेंद्र देव भगवान राम को नहीं मानते हैं, वे नास्तिक हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की नगरी अयोध्या ऐसे व्यक्ति को कैसे स्वीकार कर पाएगी! फैज़ाबाद के उपचुनाव में जमकर सांप्रदायिक कार्ड खेला गया। 28 जून 1948 के दिन वोटिंग हुई और रिज़ल्ट आया तो बाबा राघवदास को मिले 5392 वोट जबकि आचार्य नरेंद्रदेव के खाते में 4080 वोट आए। इस तरह पंत का कम्युनल कार्ड चल गया था और 1312 वोट से आचार्य नरेंद्रदेव चुनाव हार गए। इस उपचुनाव में रामजन्मभूमि मुद्दा अपने पहले राजनीतिक टेस्ट में पास हो चुका था।
इसके बाद 22 दिसम्बर 1949 को बाबरी ढाँचे में रामलला की मूर्ति प्रकट हुई, फिर हिन्दुओं ने वहाँ पूजन आरम्भ कर दिया, फिर साम्प्रदायिक विवाद होने शुरू हो गए, न्यायालय ने निर्णय लेते हुए बाबरी पर ताले लगवा कर रामलला के पूजन के लिए रिसीवर प्रियदत्त राम को बैठा दिया। फिर अनवरत यह मामला चलता रहा। 1950 से लेकर 1961 के बीच निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वफ्फ बोर्ड दोनों ही ज़मीन पर हक़ के लिए न्यायालय पहुँचे।
इसके बाद जन्मभूमि विवाद 1984 पर सड़क पर आ गया, यानी रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति बनी, बिहार से अयोध्या तक की यात्रा निकाली गई, और लाखों धर्मावलंबियों ने इसे समर्थन किया।
यात्रा के दो वर्ष बाद 1986 में गर्भगृह को खोलने के लिए याचिका दायर हुई, उस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार पर शाहबानों प्रकरण के कारण वैसे ही कई तरह के आरोप लग रहे थे, फिर उन्होंने फैज़ाबाद जिला प्रशासन पर दबाव बना कर ताले खुलवाए। इसके बाद 1988 में ज़मीन के स्वामित्व का दावा कोर्ट में लगाया। इसी दौरान विवादित ढाँचे पर शिलान्यास हो गया। विवाद बढ़ने लगे। 1989 में हिन्दू संगठन व लालकृष्ण आडवाणी ने इसी मुद्दे को लेकर सोमनाथ से रथयात्रा शुरू की, 31 अक्टूबर 1990 को उन्हें अयोध्या पहुँचना था, किन्तु माहौल खराब होने से उन्हें बिहार में गिरफ़्तार कर लिया गया, किन्तु नियत तिथि पर हज़ारों कारसेवक अयोध्या पहुँच गए, मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार में कारसेवकों पर गोलियाँ चलवाईं, जिसमें 16 कारसेवक मारे गए।
विवाद लगातार बढ़ने लग गए।
देशभर में रामजन्मभूमि को लेकर बैठकें होने लगीं, फिर 6 दिसम्बर 1992 आ गई, लाखों कारसेवकों की टोली अयोध्या में पहुँच गईं, सुबह 11 बजे से सरयू के जल में स्नान करके एक मुट्ठी रेत लेकर विवादित ढाँचे की ओर जाना था, वहाँ रेत जमा करनी थी, पर कारसेवकों की भावनाओं के सैलाब ने मात्र 6 घण्टे में ही विवादित ढाँचा ज़मीदोज़ कर दिया।
इसके बाद ढाँचा गिराने का प्रकरण सीबीआई कोर्ट में चला और ज़मीन का मुद्दा हाईकोर्ट में पहुँचा।
2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित ज़मीन को तीन हिस्सों में बाँटा, एक हिस्सा निर्मोही अखाड़े को, एक हिस्सा सुन्नी वफ्फ बोर्ड को और एक हिस्सा रामलला को मिला। हालांकि इसके 6 महीने बाद वर्ष 2011 में ही सुप्रीम कोर्ट ने यह फ़ैसला रद्द करते हुए मामला अपने पास ले लिया। 2014 में देश में भाजपा की सरकार आ गई, नरेन्द्रमोदी प्रधानमंत्री बने, इसके बाद मामले की सुनवाई में तेज़ी आई, 2017 में उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की सरकार आ गई। योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बनाए गए, इसके बाद 2019 में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला रामजन्मभूमि न्यास के हक़ में आया। सर्वोच्च न्यायालय ने 2.77 एकड़ ज़मीन पर रामलला विराजित करने का फ़ैसला सुनाया, 5 एकड़ ज़मीन सुन्नी वफ्फ बोर्ड को दी गई।
'चट मंगनी, पट ब्याह' की तर्ज़ पर 5 सितम्बर 2020 को राममंदिर निर्माण का शिलान्यास हुआ और 22 जनवरी 2024 को राम गर्भगृह में विराजित हो रहे।
लगभग 27 वर्षों तक रामलला तंबू में रहे, विवादों ने थमने का नाम नहीं लिया, हज़ारों आंदोलन हुए, लाखों लोगों के प्राण चले गए, सरयू का पानी लाल हो गया, वर्षों का वनवास अब समाप्त हो गया, और राम जन्मभूमि पर रामलला का मन्दिर बन गया।
यह संघर्ष इतिहास के उन सभी पन्नों के अवदान का साक्षी है जिन्होंने स्वयं को रामजन्मभूमि आंदोलन से जोड़ लिया।
महंत नृत्यगोपाल दास, अशोक सिंघल, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से लेकर नरेन्द्र मोदी तक इस आन्दोलन सिपाही रहे। आज आंदोलन का यश मंदिर निर्माण तक पहुँच चुका है। राघवेन्द्र अपने महल पधार रहे। यह शुभघड़ी अमृतकाल के नए भारत की आधारशिला है।