रामा तक्षक
वास्को डी गामा के नाम का उल्लेख इतिहास में हर कहीं मिलता है। लेकिन कच्छ गुजरात के व्यापारी कानजी मालम का नाम कोई नहीं जानता। इस गुजराती व्यापारी की मुलाकात वास्को डी गामा से अफ्रीका के मलिंदी बंदरगाह पर हुई थी। कानजी ने वास्को डी गामा का भारत जाने के लिए मार्गदर्शन ही नहीं किया अपितु उसके साथ अपनी दो नावों को भी भेजा था। इससे यह स्पष्ट होता है कि दुनियाभर में भारतीय भाषाओं की पहुंच बहुत पहले से रही है।
नीदरलैंड्स में इस समय हिन्दी भाषा की दो धाराएं हैं। भारतीयता की दो धाराएं हैं। नीदरलैंड में हिंदी का विकास क्रम कुछ एक ऐसी घटना है कि इस विकास क्रम में सूरीनामी भारतवंशियों का बहुत बड़ा योगदान है। उनकी हिन्दी में रूचि आज भी हिंदी की रीढ है। होली, दीवाली पर राष्ट्रीय टीवी नेटवर्क पर भी हिन्दी का संगीत सुनाई पड़ता है।
आपको यह भी पता होगा कि नीदरलैंड बहुत लंबे समय तक स्पेन के कब्जे में था। यहां पर कैथोलिक धर्म प्रचलित था। स्पेन का यहां पर सीधा शासन नहीं था। बल्कि बेल्जियम में एक प्रतिनिधि स्पेन के शासक का होता था। बेल्जियम से ही डच भूभाग पर सत्ता का नियंत्रण होता था। नीदरलैंड्स में कैथोलिक धर्म के चलते। डेसीडेरियस एरासमुस के प्रयासों से प्रोटेस्टेंट धर्म का उदय हुआ। इस परिवर्तन से मुक्त व्यापार को बहुत बढावा मिला।
अंग्रेजों का अनुकरण कर 20 मार्च 1602 में डच ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना हुई। एम्सटर्डम व्यापारिक केंद्र था। भारत से मूलतः सूती व रेशम के कपड़ो, मसालों, नील व बारूद आदि का व्यापार होता था। यह व्यापार समुद्र मार्ग से होता था। जिन जहाजों से डच ईस्ट इंडिया कंपनी भारत से व्यापार करती थी। उन जहाजों का नाम आद्रीकेम हुआ करता था।
सर्वप्रथम पीटर आद्रीकेम डच ईस्ट इंडिया कम्पनी के सर्वाेच्च अधिकारी नियुक्त होकर भारत पहुंचे थे। डच लोग लम्बी योजना बनाने। उन योजनाओं की क्रियान्विति में दक्ष रहे हैं। आद्रीकेम आगरा भी आए थे। आगरा आगमन पर अफजल ने आद्रीकेम से कहा था कि मुगल शासक से यदि बात करनी है तो आपको हिंदुस्तानी में बात करनी पड़ेगी। कहते हैं यह सुनकर, आद्रीकेम ने मुगल शासक से हिंदुस्तानी में ही बात की। डच अपने साथ सदैव दुभाषिया रखते थे।
आद्रीकेम के बाद जोशुआ केटलर भारत में डच ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रतिनिधि बनकर आया। यह घटना आद्रीकेम के कोई पचास वर्ष बाद घटी। इस समय बहादुर शाह जफर का शासन था। केटलार एक ऐसा विद्वान था जिसने हिन्दी भाषा का यानि हिन्दुस्तानी भाषा का पहला व्याकरण लिखा था। यह 1658 में लिखा गया था। इस व्याकरण के लिखे जाने का एकमात्र उद्देश्य डच ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करने वालों और भारत से व्यापार करने वालों डच व्यापारियों के लिए था। ताकि व्यावसायिक कार्य अबाधित चलते रहें।
यहां मोहन कांत गौतम का नाम उद्घृत करना भी आवश्यक है। मोहन कांत गौतम भारत से 1960 में नीदरलैंड आए थे। वे भी लायडन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं। उनका कथन है कि ’’केटलार द्वारा लिखे गये हिंदी भाषा के पहले व्याकरण की एक प्रति मेरे पास है।’’ उनसे अक्सर बातें होती रहती हैं। वे सूचनाओं के जीते जागते भंडार हैं।
केटलार के बाद एक अन्य व्याकरण लिखा गया। जिसे फ्रांकोइस मेरी ने 1704 में लेटिन भाषा में लिखा था। केटलार के पहले हरबर्ट द यागर का वर्णन भी पढ़ने को मिलता है। वे भी डच ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी थे। उन्हें कोरोमंडल भेजा गया था। उन्होंने संस्कृत तो सीखी ही और साथ ही तमिल, तेलुगू भी सीखी। हरबर्ट द यागर का कहना रहा है कि संस्कृत एक वर्ग विशेष की भाषा है। ब्राह्मणों की भाषा है। वे छत्रपति शिवाजी से भी मिले थे। यह मिलन 1677 में बीजापुर में हुआ था।
हरबर्ट द यागर के भी पहले अब्राहम रोड्रिग्स (1630-1667) एक पादरी थे। वे भारत में लगभग सोलह सत्रह बरस रहे। इन वर्षों के दौरान उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया। उन्होंने न केवल संस्कृत का बल्कि भारतीय संस्कृति व भारतीय ज्ञान परंपरा को समझने के लिए भी गहरी रुचि दिखाई। उन्होंने भारतीय रीति-रिवाजों सहित धर्म, पूजा पद्धति आदि का भी अध्ययन किया। उन्होंने वापस यूरोप जाकर संस्कृत का बढ़-चढ़कर प्रचार प्रसार किया। वह पहले ऐसे विद्वान थे। जिन्होंने चारों वेदों के बारे में भी यूरोप के लोगों को जानकारी दी। उन्होंने भर्तृहरि के बैरागी और नीति का भी डच भाषा में अनुवाद किया।
आपको ज्ञात होगा कि हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में 1764 में बक्सर का युद्ध हुआ था। मीर कासिम मुगल शासक शाह आलम का सेनानायक था। इस लड़ाई में अंग्रेजों की विजय हुई थी। इस विजय के बाद 1784 में कोलकाता में, एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की गई थी। इसका श्रेय विलियम जोंस को जाता है। इस सोसाइटी का उद्देश्य प्राच्य विद्या को केन्द्र में रखकर किया गया था। एशियाटिक सोसाइटी की पत्रिका भी प्रकाशित होने लगी। इस पत्रिका के छपने से एक बहुत बड़ा लाभ हुआ। इस पत्रिका में, संस्कृत भाषा का और संस्कृत साहित्य का उल्लेख हुआ। संस्कृत साहित्य के इस उल्लेख ने, संस्कृत भाषा के लिए, संस्कृत साहित्य के लिए जिज्ञासा का एक नया सोपान खोला। यूरोप के विश्वविद्यालयों के विद्वानों तक संस्कृत साहित्य की बात पहुंची। विलियम जोंस ने अभिज्ञान शाकुंतलम् का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया।
एशियाटिक सोसाइटी की पत्रिका में छपे आलेखों पर, खासकर संस्कृत के विश्लेषणात्मक आलेखों में जर्मनी के मैक्समूलर ने बहुत गहरी जिज्ञासा दिखाई थी। उन्होंने वेदों पर तथा धर्म ग्रन्थों की समझ को समेटते हुए ’’द सेक्रेड बुक ऑफ ईस्ट’’ लिखी। साथ ही मैक्समूलर ने ऋग्वेद का संस्करण भी प्रकाशित किया। यह सब संस्कृत के प्रचार प्रसार में पश्चिम की एक बहुत बड़ी देन मानी जाती है। विलियम जोंस व विल्किन्स को इण्डोलोजी का, भारतीय विद्या का जनक माना जाता है। हेक्सलेडेन का योगदान भी अनुकरणीय है। उन्होंने संस्कृत का यूरोपीय भाषा में पहला व्याकरण लिखा था।
संस्कृत भाषा एवम् साहित्य के प्रचार प्रसार में हेन्दरिक कास्पर केर्न का योगदान भी उल्लेखनीय है। वे एक वर्ष के लिए भारत भी आए थे। उन्हें लाइडेन विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्हें संस्कृत के साथ-साथ पाली भाषा का भी ज्ञान था। प्रोफेसर केर्न ने डच संसद में, इस बात के लिए भी पुरजोर मांगकर प्रस्ताव रखा था कि लाइडन विश्वविद्यालय में संस्कृत पीठ की स्थापना हो।
एलब्रेक्ट वेबर केर्न के गुरू थे। उन्होंने वाराहमित्र की वृहत संहिता पर भी काम किया था। इसके साथ साथ प्रोफेसर जोहन हाउसिंगा भी बनारस आये थे। उन्होंने संस्कृत नाटकों पर गहन काम किया था। प्रोफेसर केर्न जब लाइडेन यूनिवर्सिटी में संस्कृत पढ़ा रहे थे। उस समय जैकोब सेमुअल भी उनके छात्र थे। जैकोब समुअल की बौद्ध धर्म समेत भारतीय दर्शन में गहरी रुचि थी। इस तरह धीरे धीरे लायडन विश्वविद्यालय में संस्कृत का प्रचार प्रसार हुआ और यही प्रचार-प्रसार यूरोप के अन्य विश्वविद्यालय में भी फैला।
जैकोब सेमुअल के बाद आगे चलकर जे पी वोगल एम्स्टर्डम विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्राध्यापक बने। 1930 के दशक में लायडेन विश्वविद्यालय में हिंदी भी पढ़ाई जाने लगी। जे पी वोगल ने प्रेमचंद की श्सप्त सरोजश् का भी डच में अनुवाद किया। उपरोक्त सभी तथ्यों ने हिंदी भाषा के लिए आधार बनाया।
नीदरलैंड्स में लायडेन विवि बहुत पुराना है। आइंस्टाइन भी यहां पढ़े हैं। यह जानकारी रुचिकर है कि लायडेन विवि में पढ़े करीब दस विद्वानों को नोबेल पुरस्कार मिला है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना अस्सी बरस के युद्ध के ठीक बाद हुई थी। युद्ध की जीत की खुशी में, 1575 में लायडेन विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी। यहाँ, जैसा कि मैंने पहले बताया और यह भी वर्णनीय है कि भारत के डॉ प्रोफेसर मोहन कांत गौतम ने इस विश्वविद्यालय में छठे दशक से एन्थ्रोपोलोजी विषय को पढ़ाया है। वे भारतीय संस्कृति, साहित्य और यूरोप की जानकारी के जीते जागते पुस्तकालय हैं। अभी हाल ही में मेरे मित्र देवदीप के बेटे मृगांक मुखोपाध्याय ने इसी विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य शुरू किया है। एम्स्टर्डम, उटरेक्खट, ग्रोनिंगन, लायडेन इन चारों विश्वविद्यालयों में भारतीय विद्या (इण्डोलोजी) पढ़ाई जाने लगी थी। अब आर्थिक कारणों से भारतीय विद्या की पढ़ाई इन चारों विश्वविद्यालयों में बंद कर दी गई है।
आज से 100 वर्ष से भी पहले रविंद्रनाथ टैगोर सितंबर 1920 में नीदरलैंड्स में आये थे। भारतीयता के प्रति गहरी रूचि के कारण उनको सुनने के लिए लोग दूर दूर से साइकिलों से आते थे। महर्षि महेश योगी भी सत्तर के दशक में नीदरलैंड्स आये। व्लोद्रोप गांव में आकर भारतीय ज्ञान परम्परा को बांटना आरम्भ किया। उन्होंने लोगों को जीवन में सजगता के लिए ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन सिखाया व संस्था की स्थापना की।
इससे पूर्व आजाद हिंद फौज के तीन हजार सिपाही नीदरलैंड के पश्चिमी तट पर 1943 में रहकर गए हैं। आजाद हिंद फौज के इन सिपाहियों की कहानियां बड़ी रोचक हैं। यह सब जानकारी एक पुस्तक में दर्ज है। इस पुस्तक का शीर्षक है ’’फॉर फ्री इंडिया’’। यह करीब चार सौ पचास पृष्ठ की पुस्तक है। इसमें मय तारीख आजाद हिन्द फौज की यूरोप में उपस्थिति का पूरा विवरण है। इसके लेखक हैं मार्टिन बाम्बर। इस पुस्तक का सम्पादन किया है आड नावेन ने। नावेन डच नागरिक हैं। इस पुस्तक को प्राप्त करने के लिए मेरी आड नेवन से लम्बी बात भी हुई। उन्होंने इस पुस्तक की जानकारी के आधार पर बनी डोक्यूमेंट्री फिल्म ’’आंदर टाइडन्स’’ के बारे में भी बताया। इस पुस्तक में आजाद हिंद फौज की तथ्यगत बातें दर्ज हैं। आजाद हिंद फौज के सैनिकों की फोटो हैं।
सैनिक बैरियर लगाकर खड़े हैं। यहां तक की किसी सैनिक की मृत्यु हो गई तो उसके दाह संस्कार की फोटो भी है। अन्य कुछ बहुत रोचक तथ्य हैं। भारतीय सैनिकों से जुड़ी प्रेम की कहानियों को ’’आंदर टाइडंस’’ एक टीवी सीरियल में भी शामिल किया है। जिसमें आजाद हिंद फौज के सरदार सुभाष चंद्र बोस की बेटी का साक्षात्कार भी साथ-साथ दिखाया है। ये सैनिक नीदरलैंड के पश्चिमी तट पर आकर रहे। इनके यहां आने का मुख्य कारण था भारत को अंग्रेजों से स्वतंत्र करवाना। सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजो के खिलाफ हिटलर की मदद लेना चाहता था। इसलिए ये सैनिक हिटलर की मदद के लिए आए थे।
उस समय की स्थिति यह थी कि पूरे विश्व में अंग्रेजों का राज्य था। जापान, जर्मनी और इटली के अलावा विश्व में कोई अन्य सशक्त राष्ट्र न थे। विश्व में सभी जगह अंग्रेजों का राज्य था। जैसा कि आपको पता है कि उनके राज में विश्व में सूर्यास्त नहीं होता था।
आजाद हिंद सैनिकों को नाजियों ने नीदरलैंड्स के पश्चिमी तट की निगरानी का जिम्मा सौंपा था। इससे पश्चिमी तट के किनारे बसे गांव और शहरों में लोग सतर्क हो गए थे। एक खास बात जो फिल्म में दिखाई गई है कि भारतीय सैनिकों के प्रति स्थानीय लोगों का व्यवहार सामान्य था। मेरी सास ने भी मुझे बताया था कि सैनिकों के पास जाने की सख्त मनाही थी। खासकर लड़कियों पर। कहीं लड़कियाँ भारतीय सैनिकों के प्रेम में ना पड़ जाए।
हर माता-पिता ने अपनी बेटियों को भारतीय सैनिकों के इलाके में न जाने की सलाह दी थी। मैंने आड नावेन की सलाह पर ’’आंदर टाइडंस’’ टीवी प्रोग्राम देखा। मिस्सड ए प्रोग्राम की तकनीकी के माद्यम से यह देखना सम्भव हुआ। उसमें दो महिलाएं जो लगभग अस्सी बरस की आयु पाने को हैं। वे अपने पिता से कभी नहीं मिल पाई। आज भी अपने पिता से मिलने का सपना उनकी आंखों के सामने खड़ा हुआ है। शायद ये दोनों महिलाएं अभी भी जीवित हैं। ये दोनों महिलाएं भारतीय सैनिकों की बेटियां हैं। जो 1943 में यहां नीदरलैंड में आये थे।
यूं तो गिरमिटिया जीवन पर बहुत पुस्तकें लिखी गई हैं। गत वर्ष एक नयी पुस्तक डच भाषा में है। इस आर भगवान बली की पुस्तक का शीर्षक क्म जवज ावमसपम हमउंाजमद है। यह पुस्तक भारतीय मजदूरों के सूरीनाम आगमन का कच्चा चिट्ठा पढ़ने और इन मजदूरों के जीवन के इतिहास को जानने का सुंदर स्त्रोत है। यह पुस्तक डच भाषा में लिखी गई है। इस पुस्तक का आधार डच और भारत सरकार की आर्काइव से मिली तथ्यगत जानकारी है। भारतीय मजदूरों के भारत से प्रस्थान के समय पंजीकरण की जानकारियां आंख खोलने वाली हैं। इन भारतीय मजदूरों के पंजीकरण में लिखा है कि सभी रोजगारशुदा हैं। कोई अध्यापक है। कोई नर्स है। कोई पटवारी है। यानी इन मजदूरों में कोई भी ऐसा नहीं है जो भारत से सूरीनाम जाते समय बेरोजगार हो।
गिरमिटिया मजदूर पाँच बरस बाद भारत न लौटें। इसके लिए डच सरकार ने मजदूरों को छोटे छोटे जमीन के टुकड़े देकर मालिक बना दिया। यह सब जानकारी मुझे 28 मार्च 2021 को सरनामी हाऊस की पार्टी में मिली। मैं भी सपत्नी आमंत्रित था। मुझे भी मंच पर बोलने का मौका दिया गया। मैंनें कहा ’’डच में बोलूं और गड़बड़ हो जाए तो बुरा मत मानना।’’ ’’मेरा उच्चारण कहीं बेतरतीब हो सकता है।’’
’’आप हिन्दी में बोलो’’ आयोजक से उत्तर मिला। मैंने संक्षिप्त वक्तव्य हिन्दी में ही दिया। इस आयोजन में कुछ ऐसे लोगों से मिलना हुआ। जिनका जन्म सूरीनाम में हुआ है। रहते नीदरलैंड में हैं।
ये जब पहली बार भारत की धरती पर उतरे तो उनके कन्धे ढ़ीले हो गये। इन्हें इतना शुकून मिला। लगा कि घर आ गये। राजमोहन व उनकी पत्नी मालती मेरे घर पर आये तो उन्होंने भी यही बताया था। राजमोहन का जन्म भी सूरीनाम में हुआ है। वे भोजपुरी के संगीतज्ञ हैं। सूरीनाम में उनकी लोकप्रियता स्वाभाविक है लेकिन भारत में भी उनकी लोकप्रियता कमतर नहीं है। असित शिवमंगल से भी परिचय हुआ। इनका जन्म भी सूरीनाम में हुआ है। इस समय नीदरलैंड्स में रहते हैं। उनसे बातचीत में पता चला। ये अपने परदादा के जन्म स्थान को भारत में ढ़ूढ़ना चाहते हैं।
एक अन्य पुस्तक है ज्मतनह दंत उपरद तवजप लेखक त्ंउवद ठमना शीर्षक है ,’’रोटी की ओर वापसी।’’ यहां यह बता देना आवश्यक है कि यह पुस्तक एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखी गई है। जिसका हिंदी से कोई लेना देना नहीं है। वह केवल सूरीनामी है। भारतवंशी भी नहीं है लेकिन एक सतत और गहन जिज्ञासा इस पुस्तक के शीर्षक से ही लग जाती है।
यहां अमृता शेरगिल की जीवनी पर लिख देना भी तर्कसंगत है। वे हंगरी में पैदा हुई थी। पेरिस फ्रांस में पली बढ़ी थी। अमृता शेरगिल ने अपने दोस्तों को कहा ’’ मेरा जन्म कहीं भी हुआ हो। मैं कहीं भी पली बढ़ी हूँ। देश तो मेरा भारत ही है।’’ यह सुन सब दोस्त चौंक पड़े थे। हिंदी परिषद नीदरलैंड ने हिन्दी भाषा के लिए बहुत ठोस काम किया है। यह संस्था 1983 से राष्ट्र भाषा प्रचार समिति के पाठ्यक्रम को नीदरलैंड्स में पढ़ाती रही है। इस संस्था से कई हजार छात्रों ने प्रमाण पत्र प्राप्त किये हैं। इस संस्था के अध्यक्ष हैं नारायण मथुरा। मुझे ठीक से याद है जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 2017 में नीदरलैंड् आये थे। उस समय नारायण मथुरा भारतीय तिरंगा लिए हुए होटल के बाहर खड़े थे। हिन्दी दिवस पर उन्होंने मुझे लिखा था ’’मुझे खुशी तब होगी जब हर भारतवंशी हिन्दी में बोलेगा।’’
पिछले वर्ष 2021 में भारतीय महिला विश्व सुन्दरी बनी तो एक सूरीनाम हिन्दुस्तानी मित्र ने अपने फेसबुक पर लिखा ’’भारत माता की जय।’’ इसके अतिरिक्त हिंदी प्रचार संस्था नीदरलैंड्स और हिंदी भाषा समिति की स्थापना क्रमशः 1997 और 2012 में हुई थी। ओम टी वी भी पच्चीस साल के बाद 2015 में बंद हो गया। ओम टीवी का प्रसारण हर रविवार को होता था। मूलतः इसमें सरनामी भारतवंशियों का योगदान था। डॉ मोहन गौतम भी इससे जुड़े रहे हैं।उजाला रेडियो पर हिन्दी अभी भी जारी है। साथ ही राबिन बलदेव सिंह सक्रिय राजनीतिज्ञ हैं। उन्होंने भोजपुरी यानी सरनामी में काव्य संग्रह लिखे हैं। वे सरनामी भाषा का रोमन में व्याकरण भी लिख रहे हैं।
यह तथ्य बहुत ध्यान देने योग्य है कि नीदरलैंड में द हेग स्थित इण्डिया हाऊस में गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर सूरीनामी भारतवंशियों की उपस्थिति बहुतायत में होती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने नीदरलैंड प्रवास के दौरान सूरीनामी भारतवंशियों को जोड़ने के लिए बहुत ठोस कदम उठाया था। उन्होंने सभी सूरीनामी भारतवंशियों को ’’ओवरसीज सिटीजन ऑफ इण्डिया’’ का दर्जा दिये जाने की घोषणा की थी।
नीदरलैंड में काफी मंदिर हैं। इनकी संख्या लगभग पचास है। यहां मंदिरों में हिन्दी पढ़ाई जाती है। विवाह समारोहों का आयोजन मंदिर में होता है। सत्संग होते हैं। मंदिरों में योग और ध्यान की कक्षाएँ निरंतर चलती रहती हैं। यहां भारत से आये बहुत सारे पंडित हैं। जिन्होंने हिंदी भाषा के साथ-साथ संस्कृत का अलख भी जगा रखा है। सूर्य प्रसाद बीरे भी सूरीनाम में जन्मे। द हेग में आसन मन्दिर के प्रबंधक रहे हैं। उन्होंने जेएनयू दिल्ली में शिक्षा पाई है। उनका प्रयास रहा कि उनकी संतान भारत में गुरुकुल में पढ़े।
हमें संस्कृत पर बहुत संवाद करने की आवश्यकता है। जब भी घर में कोई धार्मिक अनुष्ठान। विवाह कर्मकांड होता है। गृह प्रवेश होता है। हम पंडित के पीछे पीछे। पंडित जी को मंत्रोच्चारण के लिए बुलाते हैं। आसन बिछाते हैं। मण्डप सजाते हैं। मंत्रोच्चारण सुन विवाह बंधन में बंध जाते हैं। लेकिन संस्कृत की बदहाली ये है कि पंडित जब घर से मंत्रोच्चारण कर, पूजा पाठ के बाद घर से निकल जाए तो हम संस्कृत को भी झाड़ू मार कर घर से बाहर निकाल देते हैं। मैं संस्कृत का पक्षधर इसलिए हूं क्योंकि संस्कृत में, आज भी और कल भी व्यक्ति में, प्राण फूंकने की क्षमता है। इसमें मानव की और हिंदी भाषा की रीड को सुदृढ़ करने का पूरा साजो सामान है।
पिछले कुछ बरसों से साझा संसार मंच के माध्यम से हिन्दी भाषा के पिरामिड को वृहत बनाने के लिए मैं भी सक्रिय रहा हूं। मुझसे जो बन पड़ा मैं कर रहा हूं। मेरा प्रयास है। प्रवासी भारतीय साहित्य और भारतीय साहित्य की धाराएं, पास पास आ मिल जायें। इस हेतु भारतीय ज्ञानपीठ, वनमाली सृजन पीठ दिल्ली के निदेशक लीलाधर मंडलोई और विश्वरंग के निदेशक संतोष चौबे का अभूतपूर्व सहयोग सस्नेह मिल रहा है। अब तक लगभग डेढ़ सौ प्रवासी साहित्यकारों को जोड़ा जा सका है।
पिछले वर्ष से ’’प्रवास मेरा नया जन्म’’ और ’’संस्कृत की वैश्विक विरासत’’ विषयों पर भी अन्तर्राष्ट्रीय वेबीनारों का आयोजन किया है। साथ ही श्हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा हैश् तथ्यों पर डॉक्टर जयंती प्रसाद नौटियाल की शोध पर भी आयोजन भी किया।
विगत वर्षों में गर्भनाल पत्रिका ने नीदरलैंड्स में रह रहे हिन्दी के रचनाकारों की रचनाएं भी प्रकाशित होती रही हैं। इस समय हिंदी लेखन में रामा तक्षक, पुष्पिता अवस्थी, विश्वास दुबे, ऋतु शर्मा, सोनी वर्मा, आलोक पाण्डेय, जिज्ञेश कार्णिक, आस्था दीक्षित, प्रियंका सिंह, राकेश पाण्डेय, महेश वल्लभ पाण्डेय, शिवांतिका श्रीवास्तव, आशीष कपूर, हर्षिता वाजपेयी, शिवांगी शुक्ला, इन्द्रेश कुमार,संतोष कुमार, सुशांत जैन, ममता मिश्रा, शिखा झा आदि सक्रिय हैं।
द हेग स्थित गांधी केंद्र के निदेशक शिवमोहन सिंह भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार हेतु सक्रिय रहे हैं। वे स्वयं भी गजल गायक हैं। इस समय गांधी केन्द्र के निदेशक कृष गुप्ता भारतीय संस्कृति और हिंदी भाषा व साहित्य की पताका अपने हाथों में थामे हैं। गांधी केन्द्र में आज भी हिन्दी पढ़ाई जा रही है। इस समय हेम वत्स के बाद डॉ सोनी वर्मा हिन्दी व संस्कृत विषय की अध्यापिका हैं। गांधी केन्द्र में इस समय बीस से अधिक छात्र हैं। यह संख्या बढ़ती घटती रहती है। हाल ही में विश्वरंग अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका में भी नीदरलैंड्स के लेखकों की रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। नीदरलैंड में हिन्दी भाषा के लिए पुष्पिता अवस्थी का भी योगदान अनुकरणीय है। उन्होंने बहुत सी पुस्तकें लिखी हैं। साथ ही एम्सटल गंगा नामक पत्रिका का भी प्रकाशन लम्बे समय से किया है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की 2017 में नीदरलैंड्स की यात्रा ने नीदरलैंड्स व डच सम्बन्धों को नया आयाम दिया है। साथ ही इस यात्रा से जुड़ी एक विशेष घटना यह है कि प्रधानमंत्री ने नीदरलैंड्स में रह रहे सभी भारतवंशियों को एक ओवरसीज ’’सिटीजन ऑफ इण्डिया’’ का दर्जा दिये जाने की घोषणा की थी। यह घोषणा उन भारतवासियों की संतानों के लिए है जो 1873 से 1916 के बीच गिरमिटिया मजदूर के रूप में भारत से सूरीनाम गये थे।
नरेंद्र मोदी ने भारतीय प्रवासियों को सम्बोधन करते हुए कहा था ’’का हाल बा।’’ यह सुनकर हाल तालियों की गड़गड़ाहट से देर तक गूंजता रहा। यहां पर संक्षिप्त में यूरोप के अन्य देशों के बारे में संक्षिप्त में लिखकर आपसे जानकारी साझा करना चाहूंगा।
यूरोप के प्रत्येक बड़े शहर में लक्ष्मी, गणेश जैसे देवी देवताओं के लोकप्रिय नामों पर रेस्टोरेंट मिल जायेंगे। इन नामों से जुड़े रेस्टोरेंट व्यवसाय के मालिक भारतीय ही नहीं पाकिस्तानी नागरिक भी हैं। उदाहरण रोम के त्रस्तेवरे इलाके में लक्ष्मी रेस्टोरेंट। मैंने वेटर से पूछा तो पता चला कि इस रेस्टोरेंट का मालिक लाहौर से है।
इटली का डेयरी व्यवसाय में भारतीय श्रमिकों का आधिक्य है। ये मूलतः हिन्दी व पंजाबी भाषी हैं। बुल्गारिया में मौना कौशिक, यूक्रेन में यूरी बोतविंकिंन, आयरलैंड में अभिषेक त्रिपाठी हिन्दी भाषा के लिए सक्रिय हैं।
इस समय जर्मनी में सात विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई जा रही है। साथ ही हाइडलबर्ग, लाइपजिग, हम्बोलैट, हम्बुर्ग विश्वविद्यालयों में हिन्दी का अध्यापन हो रहा है। जर्मनी में शिप्रा शिल्पी और राम भट्ट, साथ ही स्पेन में पूजा अनिल, पुर्तगाल में शिवकुमार सिंह, डेनमार्क में अर्चना पैन्यूली, बुल्गारिया में मौना कौशिक हिन्दी के प्रचार प्रसार में सक्रिय हैं।
ब्रिटेन में इस समय लगभग पन्द्रह लाख भारतीय हैं। इनमें बंगाली, गुजराती भाषा भाषियों के साथ साथ बहुत से हिन्दी भाषी भी हैं। ब्रिटेन में इस समय दिव्या माथुर, तेजेन्द्र शर्मा, नासिरा शर्मा, तिथि दानी, शन्नो अग्रवाल, जय वर्मा, विजय राणा, ऋचा जैन, इन्दु बारैठ, पद्मेश गुप्त, शिखा वार्ष्णेय, ललित मोहन जोशी, कादम्बरी मेहरा, वंदना खुराना, मधु चौरसिया सक्रिय हैं। शायद मैं उपरोक्त देशों में सभी साहित्यकारों का नाम यहां न लिख सका हूँ।
नीदरलैंड्स से हिंदी भाषा में प्रकाशित पुस्तकों का विवरण भी आपसे साझा है।
रामा तक्षक - काव्य संग्रह ’’जब माँ कुछ कहती मैं चुप रह सुनता। ’’ उपन्यास - ’’हीर हम्मो’’ (राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा प्रभा खेतान पुरस्कार से पुरुस्कृत) अनुवाद - भारतीय पत्र (1583-1588) फिल्लिपो सास्सेती द्वारा लिखित स्मजजमते प्दकपंदम का इटालियन से हिंदी में अनुवाद पुस्तक प्रकाशनाधीन है। सम्पादन - नीदरलैंड्स की चयनित कहानियां। विश्वरंग महोत्सव 2023 में लोकार्पण तय है। सम्पादन - ’’साहित्य का विश्वरंग’’ त्रैमासिक पत्रिका। संस्थापक व अध्यक्ष - साझा संसार, नीदरलैंड्स। पुष्पिता अवस्थी वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार हैं और उन्होंने बहुत सारी पुस्तकें लिखी हैं और हालैंड से एम्स्टल गंगा पत्रिका की सम्पादक हैं। साथ ही वे विश्व हिंदी फाउंडेशन की संस्थापक हैं। विश्वास दुबे ,प्रेम और वाणी , कविता व कहानी संयुक्त संग्रह। सम्पादन रू दो काव्य संग्रह , सरहदों के पार खिलते हैं गुल यहाँ और सरहदों के पार सोपान।ऋतु शर्मा -सह अनुवाद रू बंद रास्ते (ज्यां पाल सार्त्र के नाटक नो एक्जिट) अनुवाद - जानवरों का जानी दुश्मन, नीदरलैंड्स की लोक कथाएँ प्रकाशनाधीन।
नीदरलैंड्स में सूरीनामी भारतवंशियों द्वारा भोजपुरी यानी सरनामी भाषा का घर में बहुतायत में उपयोग होता है। बोलचाल में देशज भाषा के ऐसे शब्द को सुना। ऐसा शब्द कानों में पड़ तो मैं चकित रहा गया था। मेरी पत्नी और मैं आस्त्रिद व इन्दरसिंह के घर एम्स्टर्डम पहुंचे थे। मई का महीना था। दोपहर के बाद का समय था। हम सब बाहर बैठे थे । साथ ही अंग्रेजी में बात कर रहे थे ताकि सब समझ सकें। अचानक बादल छंटे तो सूरज चमका। सूरज का चमका देख आस्त्रिद बोली ’’अरे घाम आ गया।’’ ’’घाम’’ शब्द सुनकर। मेरा सिर घूम गया। यह शब्द आज भी नीदरलैंड में उपयोग में है। राजस्थान में मेरे गाँव में भी धूप को ’’घाम’’ ही कहते हैं। घाम शब्द 1873 के गिरमिटिया लोगों के भारत से प्रस्थान के समय देश से बाहर गया था। जहाँ जहाँ भी लोग गये। उनके साथ उनकी बोली भाषा भी साथ गई।
हर भारतवंशी सुरीनामी ने अपनी दादी। अपने दादा। अपने नाना और अपनी नानी से हिंदी में कहानियां सुनी हैं। नीदरलैंड में हिंदी भाषा का भोजपुरी स्वरूप उनकी दादा दादी और नाना नानी है। यूरोप में जन्मी भारवंशियों की नयी पीढ़ी के लिए भी यही उक्ति लागू होती है।