प्रो. महेश चंद गुप्ता
केन्द्र सरकार वर्ष 2047 तक भारत को एक विकसित देश के रूप में देखना चाहती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल में एक कार्यशाला के दौरान देश भर के विश्वविद्यालयों के कुलपतियों, संस्थानों के प्रमुखों और संकाय सदस्यों को संबोधित किया। इसमें मोदी ने प्रत्येक विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों और युवाओं की ऊर्जा को ‘विकसित भारत’ के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में लगाने पर बल दिया है। मोदी ने विकसित भारत के सपने के साथ विश्वविद्यालयों को क्यों जोड़ा है, इस पर हमें व्यापक चिंतन करने की जरूरत है।
मैं 44 साल तक दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहा हूं। एक शिक्षक के रूप में लंबे अनुभव की बदौलत मेरी दृढ़ मान्यता है कि शिक्षा और विकास एक-दूसरे के पूरक हैं। शिक्षा की सीढ़ी पर चढक़र ही विकास की प्रत्येक मंजिल पर पहुंचा जा सकता है। यदि हम आजादी के सौ साल पूरे होने के अवसर पर वर्ष 2047 तक भारत को एक विकसित देश के रूप में देखना चाहते हैं तो यह सपना शिक्षा की बदौलत ही साकार रूप ले सकता है लेकिन यह इतना सरल और सहज नहीं है। इसके लिए देश के विश्वविद्यालयों के लिए जमकर काम करना होगा। मोदी चाहते हैं कि विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों की ऊर्जा को विकसित भारत के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में लगाया जाए। उनकी यह सोच दूरगामी है लेकिन इससे पहले विश्वविद्यालयों को ऊर्जावान बनाना होगा। अभी देश के विश्वविद्यालयों की जो हालत है, वह बेहद चिंताजनक है।
हमारे देश में प्राइवेट विश्वविद्यालय निरंतर विस्तार कर रहे हैं, पैसा कमा रहे हैं लेकिन इसके विपरीत यूजीसी की फंडिंग वाले विश्वविद्यालय पिछड़ रहे हैं। हमारे ज्यादातर विश्वविद्यालयों का बुनियादी ढांचा मजबूत नहीं है। उनमें विश्व स्तरीय स्मार्ट क्लास रूम का अभाव है। अच्छे ऑडिटोरियम, लाइब्रेरी, एकेडमिक ब्लॉक्स और बेहतरीन लैब की कमी खलती है। जो भारत प्राचीन काल में समूचे विश्व में शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था, जिस भारत में उच्च शिक्षा के दुनिया के पहले विश्वविद्यालयों में शामिल सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, उस भारत में विश्वविद्यालयों की मौजूदा स्थिति विचारणीय है। इस वजह से देश में उच्च शिक्षा गुणवत्ता के लिहाज से पिछड़ रही है। धनवान लोगों के बच्चे तो उच्च शिक्षा के लिए विदेश चले जाते हैं और वहीं कॅरियर बनाकर बस भी जाते हैं। आम लोगों के बच्चे प्राइवेट विश्वविद्यालयों में शोषण झेल रहे हैं। यूजीसी फंडिंग वाले विश्वविद्यालयों की स्थिति सुधारी जाए तो हालात बदले जा सकते हैं। ऐसा तभी संभव है, जब हम हमारे विश्वविद्यालयों को वर्ल्ड रैंकिंग में लाएंगे। उन्हें बड़ा ब्रांड बनाने की दिशा में काम करेंगे।
आज पूरी दुनिया में ब्रांड-रैंकिंग की वेल्यू है। हार्वर्ड, केम्ब्रिज, ऑक्सफोर्ड जैसे संस्थानों में पढ़े युवाओं को बड़े-बड़े पद तुरंत मिल जाते हैं। यह सब उनकी ब्रांड-रैंकिंग वेल्यू का ही कमाल है। यह कमाल भारत के विश्वविद्यालय भी कर सकते हैं लेकिन अफसोस है देश की आजादी के बाद इस दिशा में सात दशकों तक सोचा ही नहीं गया। हमारे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय भी पिछले सात दशकों में पिछड़ते ही चले गए हैं।
भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली की गिनती विश्व की तीसरी सबसे बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली के रूप में होती है। हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली यूएसए व चीन के बाद तीसरे स्थान पर है। हमारे यहां एक हजार से अधिक विश्वविद्यालय और विवि स्तर के संस्थान हैं, इनसे 37 हजार से ज्यादा कॉलेज सम्बद्ध हैं लेकिन इसके बावजूद स्थिति यह है कि चीन के बाद भारत ऐसा वह देश है, जहां से प्रति वर्ष सबसे अधिक बच्चे पढऩे के लिए विदेश जा रहे हैं। केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री सुभाष सरकार ने इस साल लोकसभा में बताया है कि 2017 से 2022 के दौरान 30 लाख से अधिक भारतीय उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए।
सवाल उठता है कि आखिर क्यों हमारे बच्चे पढऩे के लिए विदेश की ओर दौड़ लगा रहे हैं? क्यों हम उन्हें देश में ही विश्व स्तरीय शिक्षा मुहैया नहीं करा पा रहे हैं? और क्यों विदेशों के बच्चे हमारे देश में आकर पढऩे में रुचि नहीं ले रहे हैं? इसकी प्रमुख वजह हमारा वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में पिछडऩा है। एक ओर जहां विभिन्न देशों के विवि टॉप 100 में हैं, वहीं हमारी यूनिवर्सिटी की गिनती टॉप 500 में भी नहीं होती है। उदाहरण के रूप में, टाइम्स हायर एजुकेशन (टीएचई) की ओर से जारी वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2024 को देखा जा सकता है। इसमें 108 देशों और रीजन की 1904 यूनिवर्सिटी शामिल हैं। दुनिया में टॉप वन यूनिवर्सिटी में पहले नंबर पर लंदन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी है। दूसरे नंबर पर यूनाइटेड स्टेट की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और तीसरे नंबर पर यूनाइटेड किंडगम की यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज का नाम शामिल है। इस बार भारत की 91 यूनिवर्सिटी को टीएचई वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2024 में जगह मिली है, इनमें केवल आईआईएस बेंगलुरू ही वर्ष 2017 के बाद पहली बार टॉप 250 यूनिवर्सिटीज की लिस्ट में जगह बना सकी है। इस रैंकिंग में टॉप 501 से 600 के बीच नंबर वन पर दक्षिण भारत की अन्ना यूनिवर्सिटी है। अन्ना यूनिवर्सिटी को एनआईआरएफ 2022 रैंकिंग में 20वां और समग्र श्रेणी के तहत 22वां स्थान प्राप्त है। टीएचई रैंकिंग में दूसरे नंबर पर नई दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया, तीसरे नंबर पर वर्धा का महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, चौथे नंबर पर शूलिनी यूनिवर्सिटी ऑफ बायोटेक्नोलॉजी एवं मैनेजमेंट साइंस का नाम शामिल है। शेष सभी यूनिवर्सिटी टॉप 601 से 1000 के बीच हैं।
भारत के पास एक हजार से ज्यादाविश्वविद्यालयों एवं विवि स्तर के संस्थानों का आधार है लेकिन इनमें से मात्र 15 उच्च शिक्षा संस्थानों का ही टॉप 1000 में स्थान है। इस कारण विश्व स्तर पर हमारे उच्च शिक्षा संस्थानों की ओर विश्व समुदाय का ध्यान नहीं जा रहा है। वर्ष 2021 में सिर्फ 23 हजार 439 बच्चे ही विदेश से पढऩे के लिए हमारे यहां आए। अब तक हमारे यहां पढऩे आने वाले विदेशी बच्चों का आंकड़ा बमुश्किल पचास हजार तक ही पहुंच सका है।
मोदी सरकार की नई शिक्षा नीति में भारतीय उच्च शिक्षा के अन्तर्राष्ट्रीयकरण पर जोर दिया गया है। जाहिर है, सरकार हमारे उच्च शिक्षण संस्थानों में विदेशी बच्चों की तादाद बढ़ाने की ख्वाहिशमंद है। पश्चिमी देशों से तुलना करें तो भारत में शिक्षा अर्जित करना सस्ता है लेकिन फिर भी विदेशी बच्चों का बड़ी तादाद में यहां पढऩे के लिए न आना हमारे सिस्टम की खामियों की ओर इशारा करता है। केन्द्र सरकार की ओर से 2018 में लागू किए गए ‘स्टडी इन इंडिया’ कार्यक्रम से भी विदेशी बच्चों को रूझान भारत में पढऩे की तरफ नहीं हुआ है
हमारे देश में उन अफ्रीकी और अरब देशों के विद्यार्थी ही पढऩे के लिए आते हैं, जिनका उच्च शिक्षा का ढांचा कमजोर है। बांग्लादेश, भूटान और बच्चे भी हमारे यहां पढऩे को तरजीह देते हैं लेकिन इन सभी देशों को मिला कर भारत में पढऩे आने वाले विदेशी बच्चों की तादाद उन बच्चों की तादाद के मुकाबले नाम मात्र ही है, जो भारत से विदेशों से पढऩे के लिए जाते हैं। पश्चिमी देशों के बच्चे तो भारत में पढऩे का ख्याल भी मन में नहीं लाते क्योंकि जब वह उच्च शिक्षा के लिए किसी देश एवं संस्थान को चुनते हैं तो इसके साथ-साथ वहां पढऩे व रहने के व्यय और वहां की क्वालिटी लाइफ पर भी नजर दौड़ाते हैं। इसके साथ-साथ संबंधित देश में पूर्व में अध्यनरत्त रहे विद्यार्थियों से मिलने वाला फीडबैक भी इसमें भूमिका निभाता है।
इन तमाम परिस्थितियों का बड़ा कारण भारत के पास अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक रणनीति का अभाव भी है। अगर दशकों पहले इस दिशा में सोचा गया तो आज हालात कुछ और ही होते। मोदी सरकार ने नई शिक्षा नीति में इस बारे में सोचा है, यह शुभ संकेत है। लेकिन इसके लिए सरकार, उच्च शिक्षा संस्थानों और आम जनता की ओर से सामूहिक प्रयास करने होंगे। कोई भी काम अकेले सरकार पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। देश का विकास सामूहिक जिम्मेदारी से ही संभव है।
यदि विकसित भारत का सपना साकार करना है तो हमें सामूहिक प्रयास करने ही होंगे। हमें ऐसी रणनीति बनानी होगी, जिससे हमारे उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थिति तेजी से सुधरे। हमारे ज्यादा से ज्यादा संस्थान अच्छी वर्ल्ड रैंकिंग में आएं। खराब रैकिंग हमारे लिए सबसे बड़ी बाधा है क्योंकि खराब रैंकिंग के कारण भारत की ओर न तो विदेशों के शिक्षा विद् आकर्षित हो रहे हैं और न ही विदेशों के विद्यार्थियों की रुचि हमारे देश की ओर पैदा हो रही है। इसके लिए हमें विश्व स्तर पर पहचान बना चुके विभिन्न देशों के उच्च शिक्षा संस्थानों का अनुसरण करना होगा। हमें उन देशों के उच्च शिक्षा संस्थानों से सीखना होगा, जिन्होंने बेहतर और विकसित शिक्षा प्रणाली के जरिए वैश्विक रैंकिंग में लगातार उच्च स्थान पर अपना रुतबा कायम किया हुआ है। विश्वविद्यालयों में जरूरी संसाधनों की पूर्ति करनी होगी। नई शिक्षा नीति की भावना के अनुरूप जहां हमें विश्वविद्यालयों को आत्मनिर्भर बनाना होगा, वहीं शिक्षा और शोध के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण प्रयासों की दरकार होगी।
अगर हम ऐसा कर पाए तो यह हमारे देश की उच्च शिक्षा के लिए क्रांतिकारी कदम साबित होगा। इसकी बदौलत हम विदेशों में पढऩे के लिए जाने वाले बच्चों को यहीं पर क्वालिटी एजुकेशन दे पाएंगे। इससे जहां प्रतिभाओं का पलायन रोका जा सकेगा, वहीं करोड़ों डॉलर का विदेशों की ओर हो रहा बहाव भी हम रोक पाएंगे। जब हमारे यहां वर्ल्ड क्लास शिक्षा संस्थान होंगे, उनमें क्वालिटी एजुकेशन होगी और तमाम जरूरी संसाधन एवं सुविधाएं होंगी तो वर्ल्ड रैंकिंग भी टॉप की तरफ जाएगी। इससे विदेशी बच्चे हमारे यहां पढऩे के प्रति लालायित होंगे। विकसित भारत का स्वप्न साकार होने का मार्ग भी इसी से प्रशस्त होगा।
(लेखक विख्यात शिक्षा विद् हैं)