रामा तक्षक , नीदरलैंड्स
प्रेम से जीने की सीख, एक अहम पाठ और समय की मांग है। प्रेम से जीना सीखना है तो महिला से बड़ी प्रेम की शिक्षा कोई नहीं दे सकता। मैंने अपनी मां, चाची, ताई, अपनी बहिनों और स्वयं मेरी पत्नी जो डच मूल की हैं व अन्य घर की सभी महिलाओं को देखा है। वे पौ फटने से पहले, आँख खुलते ही उनका जीवन, पति की, परिवार की देखभाल में जुट जाता है। उनकी आँखों के सामने, प्रेम की राह में समर्पण की पूरी दिनचर्या जाग जाती है।
ऋषित्व, स्त्रैण देह को अस्तित्व का वरदान है। ऋषि होने के लिए, नारी को वन गमन की जरूरत नहीं है। घर छोड़ने की जरूरत नहीं है। स्त्री सूई में धागा पिरोने से लेकर, चटनी बनाने, सब्जी छीलने और परिवार के पोषण के सभी काम बहुत ही मनोयोग से करती है। काम, स्त्री देह की पूर्णता को परिभाषित करता है। स्त्री का गर्भधारण और गर्भकाल, ध्यान का स्वर्णकाल है। वह गर्भकाल में अपनी जीवन की धुरी से जुड़ी होती है। अपनी धुरी से जुड़ना परम आनंद से जुड़ना है। गर्भ में शिशु की हलचल के समय वह आनंद से भर जाती है। प्रसवकाल की चरम पीड़ा भी स्त्रैण देह का ध्यान का हिस्सा है। उस पीड़ा को झेलते समय वह अपने आपको नहीं बचाती। वह पीड़ा का हिस्सा बन जाती है। जन्मते ही नवजात की रूलाई पर, वह प्रसव की चरम पीड़ा को भूल, मुस्करा कर नवजात को छाती से लगा लेती है।
अब मां बाप अपनी जायदाद खरीदते समय इस सोच को बदलें कि हम न रहेंगे तो बेटे के पास पर्याप्त छोड़कर जायें। अब समय आ गया है बेटी की भी बात करें कि कहीं बेटी पीछे न रह जाये। आज का समय इस संक्रांति की दृष्टि से बहुत परिपक्व है। तकनीकी दृष्टि से इससे बेहतर जीवन रूपान्तरण और समाज रूपान्तरण का समय नहीं हो सकता है। सामाजिकीरण की परतों में महिला लिपटी है। इन परतों से छुटकारा स्वयं महिलाओं की क्षमताओं पर निर्भर है।
बात हम स्त्री लेखन की भी कर सकते हैं या बात है स्त्री लेखन पर पुरुष के नजरिये की तो यह बहुत व्यापक चर्चा का विषय हो सकता है। लेकिन बात है नारी की समाज में वर्तमान स्थिति की। कोविड काल के दौरान, अप्रत्याशित और अपवाद स्वरूप, मई माह में अन्तर्राष्ट्रीय महिला साहित्य समागम में भाग लेने और अपना वक्तव्य देने का अवसर मिला था। ’’मैं चलूं तो कारवां साथ चले।’’ इस आयोजन के स्वागत उद्बोधन में, पद्मा राजेंद्र जी के इन शब्दों की धुरी और व्यापकता देखते ही बनती है। ज्योति जैन जी ने भी अपने वक्तव्य में कहा ’’स्त्री से अधिक सामंजस्य विधि को कोई नहीं जानता है।’’
उद्घाटन समरोह के अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ सूर्यबाला जी ने स्त्री लेखन पर व्यापक प्रकाश डाला। उन्हीं के शब्दों में ’’स्त्री लेखन चट्टान तोड़कर आया है। घर आंगन लेखन दुनिया की धुरी है।’’ लगे हाथ उनका दूसरा कथन था ’’दुनिया को सुंदर बनाने का कौशल स्त्री के पास है।’’ यह सब सुनकर, यदि आप हेलीकॉप्टर व्यू से मानव जीवन की यात्रा को देखें तो आप यह स्पष्ट पायेंगे कि मानव जीवन के इतिहास में, सामाजिक सहभागिता में, नारी को देहरी भीतर, घूंघट में रखा गया है। नारी को पर्दे में रखा गया है। नारी को सामाजिक परम्पराओं के परकोटों में रखा गया है। उसे दिन प्रतिदिन के जीवन में हाशिये पर रखा है। इतिहास इस बात का गवाह है। सदियों का मौन, नारी को समाज में हाशिये पर रखने का साक्षी है। अतः मुझे सम्पूर्ण मानव जगत से, वैश्विक संस्कृति से, यह कहने में कतई और कोई संकोच नहीं है कि मानव जीवन में, नारी को हाशिये पर रखने की सोच में, कहीं आमूल चूल भूल हुई है। बहुत बड़ी चूक हुई है। इस चूक का खामियाजा ईश्वरीय शक्ति भी भरपाई नहीं कर सकता है।
मेरी दृष्टि में किसी हद तक स्त्री आज, अपने ही किये से भी संघर्ष कर रही है। आज विद्रोह के स्वर, स्त्री लेखन में, स्पष्ट सामने हैं। ’’छिन्नमस्ता नहीं मैं’’ शीर्षक जैसी पुस्तकों का लेखन इसके प्रमाण हैं। नारी विद्रोह के स्वर बहुत व्यापक स्तर पर, यूरोप में, छठे और सातवें दशक में तथा फेमिनिस्ट आंदोलन भी घटा है। कई अर्थों में यह आज भी जारी है। फेमिनिस्म के बाद एल एच बी टी आन्दोलन भी सामने उभर कर आया। एल एच बी टी आन्दोलन की भावभूमि फेमिनिस्म ने तैयार की। फेमिनिस्म ने सामाजिक ढ़ांचे को बहुत कुछ नया स्वरूप दिया। एक नयी समझ पैदा की। बहुत सारे नये आयाम जीवन में उभर रहे हैं। हमें तटस्थ रहकर उन पर भी लिखना होगा।
हैलीकॉप्टर व्यू से देखने पर मानवता की तस्वीर कुछ अलग ही नजर आती है। स्त्री लेखन की भी स्पष्ट तस्वीर उभरती है। मेरे देखे एक बहुत बड़ा कैनवास अभी खाली भी है। लेखन बाकी है। काम होना शेष है। सच कहूँ तो स्त्री उत्थान के लिए, स्त्री पुरुष के समकक्ष खड़े होने के लिए, स्त्रैण क्षमताओं की समाज में स्वीकृति के लिए, स्त्री लेखन कुछ दशकों पूर्व शुरू हुआ है। मानव इतिहास के कालखण्ड में यह अभी शुरू हुआ है। यह लेखन बहुत पुराना नहीं है। बहुत पुराना यदि कभी लिखा गया तो सामने न आ पाया। पुरुष ने उसे हाशिये पर धकेल, दफन कर दिया।
चूंकि नारी इतिहास सदियों से हाशिये पर रहा है। नारी जीवन चौके चूल्हे तक सिमट गया। हालांकि चौका चूल्हे की जिम्मेदारी भी अति महत्वपूर्ण रही है। आज भी है। चौका चूल्हा परिवार के जीवन की पोषण की धुरी है। नारी जीवन को और स्त्री लेखन को हाशिये पर रखने के कारण जो भी रहे हों। ये कारण हमें स्वस्थ समाज के भविष्य को तय करने का आधार बन सकते हैं।
जैसा कि पहले कहा हम इतिहास को यदि देखें तो महिलाओं के लेखन को हाशिये पर रखा गया। महिलाओं का इतिहास कहीं नजर आता है ? इस इतिहास को लिखना होगा। इसे लिखने का अब सही समय है और इस इतिहास को संजोना भी होगा। ताकि यह धरोहर आने वाली पीढ़ियों की प्रेरणा बन सके। इस हेतु उदाहरण आपके सम्मुख रखता हूँ। यह तथ्य डच लेखिकाओं से जुड़ी बात है।
नीदरलैंड्स में, एक शोध में 1001 महिलाओं को इतिहास से निकाल कर, उनके जीवन परिचय का प्रकाशन हुआ है। यह एक मोटी पुस्तक है। इस पुस्तक का शीर्षक है ’’1001 टतवनूमद नपज छमकमतसंदके हमेबीपमकमदपे.’’ हिन्दी अनुवाद करें तो इसका शीर्षक होगा ’’नीदरलैंड्स के इतिहास में 1001 महिलाएँ।’’
इस पुस्तक में 1001 महिलाओं में से मैं यहां केवल एक लेखिका की बात आपसे साझा करूंगा। एक डच लेखिका हुई, मेलाती वान जावा उनका लेखन नाम था। वे अपना नाम छुपाती थी। उनका असली नाम निकोलिना मरिया क्रिसतीना स्लोट था। उनका जन्म 13 जनवरी 1853 को सेमरंग जावा इण्डोनेशिया में हुआ था। इण्डोनेशिया उस समय डच उपनिवेश था। उनकी मृत्यु 13 जून 1927 को समुद्र के किनारे बसे नोर्दवाइक आन से, में हालैंड में हुई। उसके पिता डच थे। उसकी माँ इन्डोनेशिया मूल की थी। इन्डोनेशिया मूल की मां की संतान होने के कारण डच समाज में, उसको दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में, जीवनयापन करना पड़ता था।
मेलाती वान जावा ने बहुत अधिक पुस्तकें लिखी। उन्होंने एक सौ से अधिक उपन्यास लिखे हैं। महिला लेखक होने के कारण उनके लिखे को डच साहित्यकारों ने नहीं स्वीकारा। इसलिए वे इतिहास से सदियों गायब रही। आज उसकी पुस्तकें पुस्तकालय में बड़ी लोकप्रिय हैं। उनका एक दो भागों में लोकप्रिय उपन्यास भ्मतउमसपरद है।
भारतीय इतिहास में भी बहुत से व्यक्तित्व, बहुत से नारी पात्र इतिहास में दबे पड़े हैं। उन्हें इतिहास की गर्द से निकाल कर, उनके व्यक्तित्व को तथ्यों के साथ नवजीवन देना हमारी सबकी जिम्मेवारी है।
1001 महिलाएं भारत के इतिहास से जैसी पुस्तक के बारे में मैंनें नहीं सुना है। ’’1001 महिलाएं भारत के इतिहास में’’ जैसे विषय पर लिखना शोध का विषय है। यह शोध का प्रश्न है। एक हजार एक भारतीय महिलाएं जैसी पुस्तक कई भागों में भी हो सकती है। दो या तीन भाग में भी हो सकती है। ऐसी पुस्तक को, पुरुषों की तो मैं गारंटी नहीं दे सकता लेकिन ऐसी पुस्तक को हर बुद्धिजीवी महिला अपनी अलमारी में, गर्व से सहेजना चाहेगी। ऐसी पुस्तक आने वाली पीढ़ियों की प्रेरणा बन सकती है।
साथ ही नारी जीवन को प्रभावित करने वाले रीति रिवाज, परम्पराएँ और आमदिन के जीवन में, समाज के जीवन के डीएनए में रमी रची बसी बातें हैं। इन सबके बारे में जानने की एक सीढी है सजगता। सजगता पहली सीढ़ी है। इसके बाद आता है व्यवहार, संवाद और लेखन। नारी जीवन को समाज में संवारने के लिए बहुत सारे तथ्य हैं। साथ ही साथ हमें जीवन की जड़ता को चिन्हित कर लिखना होगा। महिलाओं को हाशिये पर रखने का मामला सदियों सदियों पुराना है। यह सोच आज भी परिवार की दहलीज के भीतर पैर पसारे है। समाज की रग रग में है। समाज के डीएनए में है। अतः एक रात में कुछ न बदलेगा।
हमें समाज में व्याप्त वर्जनाओं को पहचानना होगा। उन्हें भी अंकित करना होगा। विमर्श की मेज पर, अवसर सृजन कर, इन वर्जनाओं को तोड़ना होगा। धर्म और समाज की परतों में व्याप्त जड़ता को एक एक कर उधेड़ना होगा। इन्हें चिन्हित कर, संवाद के सिरे पर, पुरुष प्रधान समाज की नाक के नीचे लाकर, उनके फायदे नुकसान की बात करनी होगी। यदि समय संवाद के अनुकूल नहीं है तो उससे बचना होगा। संवाद के लिए सही जमीन तैयार करनी होगी। महिला को अगाड़ी भूमिका में आना होगा। बीज को अंकुरित होने के लिए टूटना होगा। एक रुपांतरण की क्रिया से गुजरना होगा। अन्यथा बदलाव न होगा।
समाज में पुरुष बड़ी आरामदायक व्यवस्था और अवस्था में है। उसकी इस अवस्था में एक बेहोशी है। एक आदत है। उसे जगाना होगा। यह कार्य नारी को ही करना होगा। नारी यदि प्रयास करेगी तो पुरुष जागने के लिए राजी भी हो जायेगा। यह भी ध्यान रहे कि पुरुष की आदत पुरानी है। यह आदत समाज के डीएनए में सोई हुई है। पुरानी आदत मुश्किल से छूटती है। यह आशंका सदैव बनी रहेगी कि पुरुष नारी की बात न सुने, कहीं वह फिर से आदतन नींद की चपेट में न आ जाये। ध्यान रहे, यह पुनरावृति न हो कि पुरूष आपकी ना सुने और फिर गहरी नींद में सो जाये।
नारी का समर्पण, जीवन की एक धार है। जीवन के प्रति नारी का समर्पण, एक बिन किनारों का एक बहाव है। नारी का पति के प्रति समर्पण और परमात्मा के प्रति समर्पण, ये दोनों बातें लिखने और दिखने को दो हैं। कहीं गहरे में एक ही हैं। स्त्री का परमात्मा के प्रति समर्पण, परमात्मा को पूरा पाने, उसमें सिमट, मिट जाने की चाह है। वहाँ द्व को जगह नहीं है। गहरे में यही एक भाव है। चाहे परमात्मा हो, चाहे पति हो। नारी उसे पूरा पाना चाहती है। वह अपने सम्पूर्ण को मिटाकर ही सम्भव है। नारी जीवन के इस तथ्य को देख मुझे आश्चर्य होता है कि नारी अपने पति को समर्पण की राह का दर्पण क्यों नहीं दिखाती ? उसके सामने दर्पण क्यों खड़ा नहीं करती ? वह स्वयं क्यों पिसती रहती है ? व्यवहार और संवाद का दर्पण लेकर, सुबह शाम अपने पति के सामने खड़ी क्यों नहीं होती ?
अन्तर्राष्ट्रीय महिला साहित्य समागम के अवसर पर, एक युवा महिला के बोल याद आ रहे हैं ’’धार के विपरीत हूँ मैं, स्वजनों से पराजित।’’ यह एक पंक्ति नारी के इर्दगिर्द सम्पूर्ण संसार की बखिया उधेड़ने में और पुरूष को झिंझोड़ जगाने में समर्थ है। साझा संसार (नीदरलैंड्स) संस्था के माध्यम से मैं स्वयं ’’प्रवास मेरा नया जन्म’’ आयोजन ऑनलाइन करता रहा हूं। इस शीर्षक के चयन में लीलाधर मंडलोई का मार्गदर्शन भी अनुकरणीय रहा है। हर प्रवासी के जीवन में बहुत सा बदलाव आता है। इस बदलाव के पीछे कोई न कोई प्रेरणा होती है। वर्जनाएँ टूटती हैं। पुराना टूट, नया जन्म लेता है। इस शीर्षक के पीछे यही उद्देश्य है।
ऐसा ही एक उदाहरण कीनिया में रह रही ललिता चौहान ने बताया। वे युवा रचनाकार हैं। नयी प्रतिभा हैं। उन्होंने कीनिया की परम्परा में अविवाहित मां के बारे में बहुत ही रोचक तथ्यों की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि नारी देह, मातृत्व का आधार है। एक अविवाहित नारी मातृत्व को पा ले, यह बहुत नैसर्गिक और सहज है। कीनिया में अविवाहित मां को समाज आदर की दृष्टि से देखता है। अविवाहित मां के विवाह के समय उसकी संतान विवाहोत्सव में उपस्थित रहती है। विवाह पश्चात इस संतान को बाप का साया और दादी दादा का दूलार सहज ही मिल जाता है।
मेरे देखे महिला जीवन के आदर स्वरूप हर ’’रजस्वला दिन उत्सव हो’’। युवती का रजस्वला होना, संतति को साधे रखने हेतु अस्तित्व का प्रमाण पत्र है। जीवन के सार्वभौम सच को पढ़, समझ, जानने का जरिया है। यह क्रम तो चांद की कलाओं सा हर माह घटता है। इस विषय में मेरी पत्नी ने मुझे अपने पहली बार रजस्वला होने की घटना के बारे में बताया था। उन्होंने कहा ’’ मुझे ठीक से याद है। उस दिन मेरे पिता फूलों का गुलदस्ता लाये थे। जो खाने की टेबल पर सजा था। मेरे पिता के साथ साथ, मेरा छोटा भाई भी खाने की टेबल पर बैठा था। मेरी मां रसोई से निकलकर खाने की टेबल के पास आई। उसके चेहरे पर खुशी झलक रही थी। मेरी मां ने टेबल के पास पहुंच कर, मेरी ओर देखकर कहा आज का दिन उत्सव का दिन है। मेरी बेटी आज पहली बार रजस्वला होने के अनुभव से गुजर रही है।’’ मेरी पत्नी ने कहा कि ’’मेरी मां के स्वर में एक उद्घोष था।’’
एक अन्य अति महत्वपूर्ण बात नारी जीवन की है, नारी की गर्भावस्था। मेरे देखे एक गर्भवती महिला सदैव बधाई की पात्र है। उसे पग पग पर बधाई दी जानी चाहिए। जबकि होता उल्टा है। गर्भवती महिला को घर के बाहर ही नहीं, घर के भीतर भी, अपने गर्भ को ढंकना पड़ता है। अपने गर्भ को छुपाना पड़ता है। आखिर क्यों ? कब तक एक गर्भवती महिला को अपने गर्भ पर, शिशु के बढ़ते शरीर के कारण अपने बढ़े पेट को आखिर कितनी सदियों और छुपाना पड़ेगा ? नारी देह में, रसायनों की एक निश्चित वय में सक्रियता होती है। इस कारण नारी देह में होते परिवर्तन स्वाभाविक हैं। इस कारण आकस्मिकता नारी के व्यवहार में बहुत स्वाभाविक है। इसे पुरुष को धैर्यपूर्वक ध्यान से समझना होगा। नारी की आकस्मिकता यदि सांझ के भोजन के समय विमर्श का पाठ बन जाये! सामान्यतः यह सब, आम पुरुष के समझ के बाहर की कहानी रही है। अतः इस पर वृहतर लेखन की आवश्यकता है ताकि पुरुष इन सब तथ्यों को जान सके। नारी देह में घटते रसायनों के जोड़ और उससे प्रभावित होती नारी देह की समझ समाज में पैदा हो सके।
साथ ही व्यक्ति की इकाई से लेकर, घर परिवार, गली पर लेखन बहुत जरुरी है। स्थानीय मुद्दों पर लेखन बहुत आवश्यक है। सारी जड़ता वहीं छुपी है। आप यदि थोड़ा सजग होकर दैनिक कार्यकलापों को देखेंगे तो आपको बहुत कुछ नजर आयेगा। बहुत कुछ भेदभाव की बातें और स्त्री से भेदभाव की बातें सामने आयेंगी।
मैं जब कभी सपत्नीक रेस्टोरेंट में जाता हूँ तो हर बार किसी न किसी व्यावहारिक कड़ुवाहट से गुजरना होता है। जबकि रेस्टोरेंट की दुनियां तो आतिथ्य सत्कार की है। मैंनें बहुत सी बार पाया है कि अपने यहां खासकर भारत में, एक रेस्टोरेंट में, एक फाइव स्टार होटल के रेस्टोरेंट में भी एक अजीब संस्कृति है। पति पत्नी साथ साथ रेस्टोरेंट में आयें तो ’’गुड इवनिंग सर’’ से भेदभाव की बात शुरू होती है। मैडम बैरे को दिखाई नहीं देती है। पति पत्नी साथ भोजन करें तो वेटर के व्यवहार से लगेगा कि भोजन के लिए केवल पुरूष ही आया है। पत्नी मानो पति की छाया भर है। पत्नी का अपना कोई व्यक्तित्व और अस्तित्व नहीं है। पति ही पत्नी के लिए चपाती दाल का आर्डर देगा। पत्नी बिल का भुगतान करे तो भी बिल का चुकता पैसा पति के सामने रख दिया जाता है। ये छोटी छोटी बातें हैं जो समाज निर्माण का और संस्कृति की स्थापना का रास्ता तय करते हैं।
आज युद्ध हो रहा है। यूक्रेन के नागरिकों के पास 24 फरवरी तक हमारे आपकी तरह सब सामान्य था। गृहस्थी थी। आज घर बमबारी का शिकार। आज बेघर हैं। कश्मीर के हालात पर भी बहुत लिखा गया है। कश्मीर फाइल्स फिल्म भी बनी है। कश्मीरी पंडितों के साथ भारत में, भारत के कश्मीर में क्या घटा है ? द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इतने व्यापक स्तर पर लोग अपने ही देश में बेघर हुए।
यूक्रेन युद्ध ने मेरे जीवन पर गहरी चोट की है। लाखों लाखों स्त्रियाँ और बच्चे बेघर हुए हैं। जिनमें दस लाख संख्या में केवल बच्चे बेघर हुए हैं। 24 फरवरी 2022 तक इन सब बेघरों के पास, मेरे और आपकी तरह एक घर था। घर में जीवन की एक लय थी। युद्ध ने जीवन के अधिकार को नकार दिया। युद्ध के शुरू होने के बाद जो घटता है वह अनिर्वचनीय है। जीवन में बलात्कार, हत्या, बेघर और पलायन और युद्ध से प्रभावित पीड़ा को दुनिया की कोई भी कलम नहीं लिख सकती है। सामाजिक जीवन में नारी की सहभागिता को हैलीकॉप्टर व्यू से देखने पर मुझे लगता है कि नारी को हाशिये पर रखकर हम बिन कम्पास के हजारों हजार साल चल आये हैं। मानव जीवन बिन कम्पास के हजारों हजार साल चल आया है। इसी कारण जीवन में सम्पूर्ण धरती पर से शांति विदा है। शांति कहीं दिखाई नहीं देती है। हां, युद्ध झोंकने वालों की जबान पर ’’शांति’’ शब्द जरूर विराजमान रहता है।
मेरे देखे स्त्री मानव जीवन का कम्पास है। उसका जुड़ाव अस्तित्व से है। नारी जीवन के संतुलन की धुरी है। स्त्री से जीवन है। नारी संतति की आधारा है। हर महिला घर में शांति चाहती है। तभी गृहस्थ जीवन चलता है। मैंने ’’वसुधैव कुटुम्बकम’’ ये दो शब्द बहुत सुने हैं। आपने भी सुने होंगे। मैंनें इन दो शब्दों को बड़े गर्व से लोगों को उद्धृत करते सुना है। ये शब्द दो चार हजार बरस से प्रयुक्त्त हो रहे हैं। आखिर वसुधैव कुटुम्बकम का सपना साकार क्यों नहीं हुआ ? इस सपने को कौन साकार कर सकता है ? पुरुष प्रधान व्यवस्था ने पिछले तीन हजार बरस में पन्द्रह हजार युद्धों में मानवता को झौंका है। पुरुष ताकत की चाह में है। इस चाह का आधार बंटी हुई मानवता है। लोग धर्म के नाम पर बंटे हैं। लोग जातियों में बंटे हैं। लोग दीवारों में बंटे हैं। लोग रेखाओं में बंटे हैं।
’’यत्र नार्यस्तु पुज्यंते रमन्ते तत्र देवता’’ भी कथनी तक सीमित है। ये सब कहने तक रह गया है या फिर हमारी बेहोशी में कुछ हाथ से छूट गया है। सदियों सदियों से छूटा ही रहा है। वर्त्तमान वैश्विक संस्कृति में आमूल चूल कमी है। अब समय है विश्व संसद से यह उद्घोष हो कि स्त्री की सक्रियता एक नयी संस्कृति को जन्म दे। एक ऐसी संस्कृति जहां प्रेम हो, सहानुभूति हो और दयाभाव हो। यह सब एक दिन में न होगा। लेकिन असम्भव नहीं है। ऐसी संस्कृति जो विजय के लिए आतुर न हो। एक ऐसी संस्कृति जिसका आधार सजगता हो। एक ऐसी संस्कृति जो जीवन जीने की आतुरता से भरा हो।